Tuesday, May 19, 2009

काल गणना

षडध्वा
(जिस षडध्वा की चर्चा आगे होने वाली है वह कोई कपोल कल्पना नहीं हैं। आगम शास्त्र तो इसमें प्रमाण है ही। वर्त्तमान समय में डॉ. जनेश्वर प्रसाद जायसवाल, प्राध्यापक, डिग्री कॉलेज बड़ागाँव, वाराणसी ने स्वर्ग नरक तथा नवग्रह आदि का अपनी दिव्य दृष्टि से प्रत्यक्ष किया है। जिज्ञासु व्यक्ति उनसे सम्पर्क कर आगमिक तथ्यों की पुष्टि कर सकते हैं)
षडध्वा का अर्थ है - षट् = छ:, अध्व = मार्ग। अपने शिवभाव को पहचानने का मार्ग ही अध्व कहलाता है। यह छ: प्रकार का है। शिवसमावेश अथवा मोक्ष को प्राप्त करने के लिये विश्व का भेदन अर्थात् विश्व के रहस्य का अवबोध आवश्यक होता है। तन्त्र के भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय इसके लिये भिन्न-भिन्न उपाय बतलाते हैं। प्रत्यभिज्ञा दर्शन या त्रिक शास्त्र के अनुसार शिवसमावेश के लिये चार प्रकार के उपाय बतलाये गये हैं- अनुपाय, शाम्भवोपाय, शाक्तोपाय और आणवोपाय। षडध्वा का सम्बन्ध आणवोपाय से है।
यह जगत् शब्द और अर्थ रूप है। शब्द और अर्थ को नाम और रूप भी कहा गया है। वेदान्त इस जगत् को नाम रूपात्मक मानता है-
'अस्ति भाति प्रियं नाम रूपं चेत्यंशपञ्चकम् ।
आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपमथद्वयम् ।।'
(परम सत्ता के अस्ति = सत्, भाति = चित् , प्रिय = आनन्द, नाम और रूप ये पाँच अंश हैं। इनमें से प्रथम तीन अंश ब्रह्म का रूप है, शेष दो जगत् का रूप है।)
जैसा कि पहले कहा जा चुका है परा स्थिति में केवल शब्द या नाद रहता है। अर्थ उसमें निगूढ़तम स्थिति में रहता है। शनै:-शनै: विकास के क्रम से दोनों पृथक् आभासित होने लगते हैं। अपनी पृथक् स्थिति में शब्द और अर्थ के तीन-तीन प्रकार होते हैं। शब्द के वर्ण, मन्त्र और पद तथा अर्थ के कला तत्त्व और भुवन ये छ: प्रकार हैं। इन्हीं को षडध्वा कहा गया है। इन्हें काल अध्वा और देश अध्वा भी कहते हैं। सर्वप्रथम काल अध्वा का विचार प्रस्तुत है-
कालाध्वा -
काल दो प्रकार का होता है- बाह्य या सौर और आभ्यन्तर या आध्यात्मिक।
'कालो द्विधाऽत्र विज्ञेय: सौरश्चाध्यात्मिक: प्रिये।'
(स्व.तं. ७/२)
बाह्य काल -
सृष्टि के क्रम में संवित् का योगदान होता है। यह संवित् सबसे पहले प्राणरूप में परिणत होती है-
'प्राक् संवित् प्राणे परिणता।'
प्राण की गति दो प्रकार की होती है -१ स्वाभाविक या स्पन्दात्मक, २- प्रयत्नजन्य या क्रियात्मक। प्राण के स्वाभाविक स्पन्दन से वर्णों की उत्पत्ति होती है। इन वर्णों का रूप निश्चित और सर्वत्र समान होता है। किन्तु वर्णों की समष्टि मन्त्र और पद का उदय योगी की इच्छा से होता है। वर्णों की अभिव्यक्ति के लिये इच्छा या प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती, ये निरन्तर अभिव्यक्त होते रहते हैं। इसी प्राण को आधार बनाकर महाकाल का उदय होता है। चूँकि वर्ण अपनी प्रारम्भिक अवस्था में अखण्ड, नाद स्वरूप हैं इसलिये वहाँ काल भी अखण्ड है। अखण्ड होने के कारण इसे महाकाल कहा जाता है। मूल में नाद का प्रवाह ऋजु रहता है वक्र नहीं। वर्ण सर्वदा प्रवहमान है। इसका कभी भी तिरोभाव नहीं होता। वायु की वक्रगति के कारण जब अखण्ड रूप में उठ रहे नाद को झटका लगता है तब वह ऋजु नाद खण्ड-खण्ड हो जाता है और अकारादि क्षकारान्त ५० वर्णों का उदय होता है। इन उदित वर्णों का अस्त भी होता है। किन्तु यह अस्त ऐकान्तिक और आत्यन्तिक नहीं है। इसके पीछे पुन: उदय की सम्भावना रहती है। खण्डकाल का निर्धारण वर्णों की इन्हीं उदयास्तमयताओं के कारण होता है। सूक्ष्म वर्ण के तीन स्तर हैं - मध्यमा, पश्यन्ती और परा। सूक्ष्मता का तारतम्य तीनों स्तरों में रहता है और सूक्ष्म से सूक्ष्मतर सूक्ष्मतम होता चला जाता है। सूक्ष्मतम काल के भान के लिये सूचीशतपत्र न्याय को जानना आवश्यक है। कमल की एक सौ पंखुड़ियों को ऊपर नीचे क्रम में रखकर उन्हें सूई से आर पार छेदें। एक पंखुड़ी के छिदने में जितना समय लगता है वह एक क्षण होता है। आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार चित्त में एक ज्ञान का परिस्पन्द जितनी देर तक रहता है वह एक क्षण होता है।
'कालस्तु भेदकस्तस्य स तु सूक्ष्म: क्षणो मत:।
सौक्ष्म्यस्य चावधिर्ज्ञानं यावत्तिष्ठति स क्षण:।।'
(तं. आ. ७/२५)
(उस ज्ञान का भेदक काल है, दोनों साथ-साथ रहते हैं। सूक्ष्म काल को क्षण कहा गया है। सूक्ष्मता की सीमा एक ज्ञान है उस ज्ञान का एक परिस्पन्द जब तक रहता है वह एक क्षण होता है)
काल और वर्ण का साहचर्य है। सूक्ष्म और अखण्ड वर्ण के उदय में क्रम नहीं है किन्तु स्थूल वर्ण के उदय में क्रम है। यह क्रम अवर्ग, कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, यवर्ग और शवर्ग नामक आठ वर्गों का होता है। शरीर में प्राण का संचार ३६ अंगुल का होता है। इस ३६ अंगुल वाले एक प्राण चार में आठों वर्ग निहित रहते हैं। इस दृष्टि से एक वर्ग का उदय ३६ ८ = ४.५ अंगुल का होता है। एक दिन-रात अर्थात् २४ घण्टे में प्राण अर्थात् नि:श्वास प्रश्वास की गति २१६०० बार होती है तो १ घण्टा में २१६०० २४ = ९०० बार होगी। इस प्रकार १ घण्टा में ९०० ४.५ = २०० अंगुल का प्राणचार होता है तो २४ घण्टे में २०० २४ = ४८०० अंगुल प्राणचार होगा। इस प्र्रकार आठों वर्ग अर्थात् ५० वर्ण प्राण में ४८०० ८ = ६०० बार संक्रमित होता है। इस गणना से एक वर्ण का संक्रमण काल ६०० ५० = ३०००० बार संक्रमित होगा। इससे यह निष्कर्ष निकला कि २१६०० श्वास प्रश्वास में संक्रमण करने वाला वर्ण एक श्वास से भी कम समय लेता है। सम्भवत: इसी दृष्टि से आचार्य अभिनव गुप्त ने एक वर्ण के संक्रमण काल को एक क्षण कहा है। स्वच्छन्द तन्त्र के अनुसार मनुष्य के एक अक्षिनिमेष ( = पलकों का मिलना) का अष्टमांश एक क्षण होता है -
'मानुषाक्षिनिमेषस्य अष्टमांश: क्षण: स्मृत:।
(स्व. तं. ११/१०२)
२ क्षण की एक त्रुटि, २ त्रुटि का एक लव होता है। २ लव का एक निमेष, १५ निमेष की एक काष्ठा होती है। ३० काष्ठा की एक कला, ३० कला का एक मुहूर्त्त और ३० मुहूर्त्त का एक दिन-रात होता है।
३६० मानवीय दिन-रात का मानवीय वर्ष होता है। (इस गणना से १०० वर्ष की मनुष्य की पूर्ण आयु और १२० वर्ष की परमायु कही गयी है) १५ दिन-रात का एक पक्ष, २पक्ष का एक मास, २ मास की एक ऋतु, ३ ऋतुओं का एक अयन और २ अयन का एक वर्ष होता है।
मनुष्यों का एक वर्ष पितरों का एक दिन होता है। (किसी-किसी मत में मनुष्यों का एक माह पितरों का एक दिन-रात होता है।) उत्तरायण पितरों का दिन और दक्षिणायन पितरों की रात होती है। १४/१५ जनवरी से लेकर १३/१४ जुलाई तक उत्तरायण और १४/१५ जुलाई से लेकर १३/१४ जनवरी तक दक्षिणायन होता है। पितरों के एक दिन की गणना से उनके ३६० दिनों का उनका एक वर्ष होता है। देवताओं का भी एक वर्ष उतने ही दिन-रात का होता है। इस प्रकार मनुष्यों के ३६० वर्ष का देवताओं का एक वर्ष होता है। इस गणना के अनुसार देवताओं के १२००० दिव्य वर्ष का एक चतुर्युग होता है। उक्त १२००० वर्षों में से सत्ययुग ४००० दिव्य वर्ष, त्रेतायुग ३००० दिव्य वर्ष, द्वापर २००० दिव्य वर्ष और कलियुग १००० दिव्य वर्ष का होता है। कुल मिलाकर (४००० + ३००० + २००० + १०००) = १०००० वर्ष हुए। शेष २००० वर्षों में से प्रत्येक युग का दशमांश उनका सन्धिकाल होता है। इस प्रकार सत्युग का ४०० वर्ष, त्रेता का ३०० वर्ष, द्वापर का २०० वर्ष और कलियुग का १०० दिव्य वर्ष सन्ध्या काल होता है। चूँकि प्रत्येक युग के आदि और अन्त में सन्धि होती है इसलिये चारों युगों का सम्पूर्ण सन्धि काल (४०० + ३०० + २०० + १००) २ = २००० वर्षों में मनुष्यों के ३६० वर्षों का गुणन करने से ४३२०००० मनुष्य वर्ष की एक चतुर्युगी होती है।
उक्त गणना के अनुसार ७१ चतुर्युगी का एक मन्वन्तर होता है। मानवीय वर्ष के अनुसार ३०६७२००० वर्षों का एक मन्वन्तर होता है। एक मन्वन्तर के बीत जाने और दूसरे मन्वन्तर का प्रारम्भ होने के बीच ५००० दिव्य वर्षों का सन्धिकाल होता है। इस सन्धिकाल के सहित १००० चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है। इस ब्रह्म दिन को कल्प कहते हैं। मानवीय गणना के अनुसार ४०३०२००००००० मानुष वर्षों का एक कल्प होता है। इसमें सन्धिकाल ३४५६०००० मानुष वर्षों का है।
उक्त गणना के अनुसार ७१ चतुर्युगी का एक मन्वन्तर होता है। मानवीय वर्ष गणना के अुनसार ३०६७२०००० वर्षों का एक मन्वन्तर होता है। एक मन्वन्तर के बीत जाने और दूसरे मन्वन्तर का प्रारम्भ होने से पहले बीच में ५००० दिव्य वर्षों का सन्धिकाल होता है। इस प्रकार सन्धिकाल सहित १००० चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है। इस ब्राह्म दिन को कल्प कहते हैं। मानवीय वर्ष गणना के अुनसार ४०३०२००००००० वर्षों का एक कल्प होता है। इसमें ३४५६०००० मानुष वर्षों का सन्धि काल होता है।
ब्रह्मा के एक दिन के अन्त तक भू:भुव: आदि सात लोकों, सात पातालों और नरकों की सत्ता रहती है। जब ब्रह्मा के दिन का अन्त हो जाता है तब उपर्युक्त भूलोक आदि का संहार हो जाता है। यह संहार कालाग्निरुद्र के द्वारा किया जाता है जब कि सृष्टि का कार्य ब्रह्मा करते हैं। ब्रह्मा के दिन का जो परिमाण बतलाया गया उनकी रात्रि भी उतने ही परिमाण की होती है।
काल गणना के प्रसङ्ग में काल के स्तरों की चर्चा अनावश्यक नहीं होगी अत: उसका भी परिचय प्रस्तुत है। आगमशास्त्र के अनुसार गणना के स्तरों की संख्या १८ है। एक स्तर से अव्यवहित दूसरा स्तर पूर्व स्तर की अपेक्षा दश गुने मान का होता है। इस रीति से १ से लेकर परार्ध तक के १८ स्तर इस प्रकार हैं -
१. एक २. दश ३. सौ ४. सहस्त्र ५. अयुत ६. लक्ष ७. नियुत ८. कोटि ९. अर्बुद १०. वृन्द ११. खर्व १२. निखर्व १३. शङ्कु १४. पद्म १५. सागर १६. मध्य १७. अन्त्य और १८. परार्ध।
ब्रह्मा अपने अहोरात्र के काल के मान से १०० वर्ष तक जीवित रहते हैं। इस सौ वर्ष के काल को ब्राह्म कल्प कहा जाता है। कल्प का अन्त होने के बाद ब्रह्मा शक्तिपात न होने पर अपनी अपेक्षा उत्कृष्ट कारण में लीन हो जाते हैं। यदि उनके ऊपर परमेश्वर का शक्तिपात हो गया है तो वे परमेश्वर में लीन होते हैं। ब्रह्मा के एक महाकल्प अर्थात् १०० वर्ष का विष्णु का एक दिन होता है। इस परिमाण से विष्णु की आयु १०० वर्ष की होती है। एक सौ वर्ष पूरा होने पर विष्णु भी ब्रह्मा की भाँति पर कारण में अथवा परमेश्वर में लीन हो जाते हैं। विष्णु लोक का १०० वर्ष रुद्रलोक का एक दिन होता है। इस मान से रुद्र अपने १०० वर्ष तक जीवित रहते हैं। वे प्रतिदिन ब्रह्मा और विष्णु की सृष्टि करते रहते हैं। जितना बड़ा रुद्र का दिन होता है उतनी ही बड़ी उनकी रात्रि भी होती है। इस परिमाण से जब रुद्र का १०० वर्ष पूरा हो जाता है तब वह शतरुद्र का १ दिन होता है। जब शतरुद्र अपना एक सौ वर्ष पूर्ण कर लेते हैं तब शतरुद्र का पर कारण में लय हो जाता है और इस लीन शतरुद्र का स्थान दूसरा शतरुद्र ग्रहण करता है। इस प्रकार जब एक सौ शतरुद्र क्रमश: लीन और नियुक्त हो लेते हैं तब सौवें शतरुद्र के पर कारण में लीन होने पर यह ब्रह्माण्ड नष्ट हो जाता है। नष्ट होकर यह जलतत्त्व में लीन हो जाता है। उस समय ब्रह्माण्ड के संहारक कालाग्निरुद्र भी काल (= परमेश्वर) तत्त्व में लीन हो जाते हैं। यही पार्थिवाण्ड या ब्रह्माण्ड के लय की प्रक्रिया है।
एक ब्रह्माण्ड पञ्चमहाभूतों, नरकों, सप्तलोकों, चतुर्दश भुवनों, उनमें रहने वाले ऋषि आदि एवं पर्वत सागर, ग्रह, नक्षत्र आदि से परिपूर्ण होता है। तात्पर्य यह है कि एक-एक ब्रह्माण्ड में सम्पूर्ण ३६ तत्त्व रहते हैं। पार्थिवाण्ड का संहार जलतत्त्व में होता है। इस तत्त्व के अधिष्ठातृ देव अमरेश हैं। शतरुद्रों का एक सौ वर्ष अमरेश का एक दिन होता है। शतरुद्रों की भाँति एक सौ अमरेश जब क्रम से प्राप्त अपनी-अपनी नियुक्तियों का भोग कर लेते हैं और सौवें अमरेश का काल पूरा हो जाता है तब वे भी तेजस् तत्त्व के अधिपति रुद्र से अधिष्ठित तेजस् तत्त्व में लीन हो जाते हैं। तैजस रुद्रों का १०० वर्ष वायु तत्त्व के अधिष्ठाता का एक दिन होता है। इस रीति से आकाश आदि पूर्व-पूर्व तत्त्वों के अधिष्ठाताओं के १०० वर्ष उत्तरोत्तरवर्त्ती तन्मात्र आदि के अधिष्ठाताओं का एक दिन होता है। प्रत्येक तत्त्वाधिष्ठाता अपनी आयु का १०० वर्ष पूरा करने पर अपने उत्तरवर्त्ती सूक्ष्मतर तत्त्वाधिष्ठाता में तथा पूर्ववर्त्ती तत्त्व अपने उत्तरवर्ती सूक्ष्मतर तत्त्व में लीन हो जाता है। कालगणना का यह क्रम अहंकार, बुद्धि, माया के पाँच कञ्चुक, माया शुद्धविद्या, ईश्वर, सदाशिव, बिन्दु, अर्धचन्द्र, रोधिनी, नाद (नादान्त), शक्ति तक चलता रहता है।
आज के विज्ञान की काल गणना की व्यवस्था प्रकाश वर्ष के माध्यम से की जाती है। तन्त्र में गणना के जो १८ स्तर हैं उनके नाम ऊपर दिये जा चुके हैं। इन्हीं के माध्यम से समना तक की काल गणना ऋषियों द्वारा की गयी है। यहाँ इसकी चर्चा अनावश्यक नहीं होगी। पृथिवी से लेकर प्रकृति तत्त्व तक का काल परिमाण ऊपर बतलाया जा चुका है। यह विश्व प्रकृति तत्त्व में अत्यन्त सूक्ष्म रूप से लीन होकर प्रसुप्त जैसा पड़ा रहता है। पूर्व गणना के अनुसार प्रकृति तत्त्व में निविष्ट रुद्रों की जो आयु है वह छब्बीसवें रुद्र श्रीकण्ठनाथ का एक दिन होता है। इनके दिन काल में चौहद प्रकार के प्राणी, प्रजापति, पितृगण, सांख्यसिद्ध पुरुष, वेदान्तसिद्ध पुरुष, वेद, ओंकार आदि स्थित रहते हैं। श्रीकण्ठनाथ के दिन का अन्त होने पर वे सब अपने कारण में लीन हो जाते हैं। रात्रि बीत जाने पर बुद्धितत्त्वस्थ ब्रह्मा पुन: विश्वसृष्टि करते हैं। इस प्रकार बुद्धितत्त्वस्थ ब्रह्मा का ३६०० प्रलय और सृष्टि अव्यक्तस्थ रुद्रों का एक दिन होता है। अव्यक्त या प्रकृति के दिन का अन्त होने पर विश्वनायक श्रीकण्ठनाथ रात्रि बीत जाने पर पुन: सृष्टि करते हैं। पूर्वोक्त रीति से उनके ३६० दिन के वर्ष और १०० वर्ष के आयुष्काल में करोड़ों सृष्टिप्रलय घटित होते हैं।
प्रकृति के १०० वर्ष के काल का अन्त होने पर माया के पूर्वोक्त कला आदि पाँच तत्त्व या कञ्चुक अपने-अपने परिमाण के अनुसार कालभोग करते हैं। अर्थात् पूर्वोक्त गणना के अनुसार प्रकृति का १०० वर्ष नियति का एक दिन, इसी प्रकार नियति का सौ वर्ष काल का एक दिन, काल का सौ वर्ष राग का एक दिन, राग का सौ वर्ष विद्या का एक दिन और विद्या का सौ वर्ष काल, राग, विद्या और कला तत्त्व का एक दिन होता है। इस हिसाब से इनका १०० वर्ष माया का एक दिन होता है। माया के काल के परार्ध को १०० से गुणित करने पर ईश्वर का एक दिन होता है। ईश्वर के १०० वर्ष को परार्ध से गुणित करने पर सदाशिवनाथ का एक दिन होता है। इसी रीति से स्थूल सदाशिव के १०० वर्ष को परार्ध से गुणित करने पर बिन्दु तत्त्वस्थ सूक्ष्म सदाशिव तत्त्व का एक दिन होता है। इस सदाशिव के १०० वर्ष को परार्ध से गुणित करने पर नाद तत्त्वस्थ सूक्ष्म सदाशिव का एक दिन होता है। इस रीति से नादतत्त्वस्थ देवता के १०० वर्ष को परार्ध से गुणित करने पर शक्ति तत्त्वस्थ देवता का एक दिन होता है जिसका परिमाण १०० परार्ध १०० परार्ध मायीय वर्ष होता है। शक्ति की रात्रि भी इतनी ही बड़ी होती है।
शक्ति तत्त्व का काल १०० १०० परार्द्ध संख्या वाला है। इस परार्द्ध संख्या को एक कोटि से गुणा करने पर व्यापिनी का एक दिन होता है। व्यापिनी तत्त्व के अधिष्ठाता अनाश्रित शिव हैं। व्यापिनी के इस काल को पुन:परार्ध से गुणा करने पर समना तत्त्व का एक दिन होता है। समना के भी अधिष्ठाता अनाश्रित ही हैं। काल की सीमा यहीं तक है -
'समनान्तं वरारोहे पाशजालमनन्तकम् ।'
(स्व. तं. ४/७३२)
समना के ऊपर उन्मना तत्त्व है जहाँ काल नहीं है। यह परम सत्ता की नित्योदित दशा है। पहले कालाध्वा के जिस प्रकरण का प्रारम्भ किया गया था वह कालाध्वा क्षण से लेकर समना तक के काल को अपनी सीमा में रखता है। योगी के पृथिवी से लेकर समना तक के तत्त्व का भेदन करने का अर्थ है क्षण से लेकर समना तत्त्व तक के काल का रहस्यज्ञान करना। यह बाह्य काल गणना है।
आध्यात्मिक काल -
त्वक्, मांस, रक्त, मज्जा अस्थि और शुक्र नामक छ: कोशों से निर्मित इस शरीर में परमेश्वर की स्वातन्त्र्य शक्ति आत्मा के रूप में विराजमान है। इस शरीर में जितने रोमकूप हैं उतनी नाड़ियाँ हैं। इस नाड़ी संजाल में १० नाड़ियाँ प्रमुख हैं - १. इडा २. पिङ्गला, ३. सुषुम्ना, ४. गान्धारी, ५. हस्तिजिह्वा, ६. पूषा, ७. यशस्विनी, ८. अलम्बुसा, ९. कुहू और १०. शंखिनी। इन नाड़ियों में, प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृककर, देवदत्त और धनञ्जय नामक दश वायु प्रवाहित होते रहते हैं। उक्त दशों नाड़ियों में भी इडा पिङ्गला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ प्रमुख हैं। पिङ्गला बिन्दु या ज्ञानशक्ति प्रधान नाड़ी है। इडा नाद अर्थात् क्रिया-शक्ति प्रधान नाड़ी है। इन दोनों नाड़ियों के बीच परमेश्वर की अद्याशक्ति की स्फुरत्तारूप सुषुम्ना नाड़ी है। प्राण उपर्युक्त इन्हीं तीनों नाड़ियों में प्रवाहित होता रहता है।
बाह्य त्रुटि की चर्चा पहले की जा चुकी है। उसी प्रकार प्राण में आगमिकों या योगियों ने त्रुटि की परिकल्पना की है। एक प्राणवाह अर्थात् एक नि:श्वास-प्रश्वास में १६ त्रुटियाँ होती हैं। एक प्राणीय त्रुटि बाह्य १२ त्रुटि के बराबर होती है। प्रकारान्तर से एक बाह्य त्रुटि = १/२ प्राणीय त्रुटि। इस प्रकार बाह्य एक क्षण प्राणीय एक त्रुटि का १/४ अंश होता है। इस क्रम से आभ्यन्तर अहोरात्र ३० त्रुटि का होता है। दूसरे शब्दों में बाह्य एक काष्ठा का आभ्यन्तरीण एक दिनरात होता है। जिस प्रकार बाहरी दिन का चतुर्थ भाग याम (=प्रहर) कहलाता है उसी प्रकार आभ्यन्तर याम भी होता है। इसकी मात्रा ४ प्राणीय त्रुटि मानी गयी है। प्राणीय दिन का अर्थ है - प्राण का बाहर जाना अर्थात् नि:श्वास। इसमें ४ ४ = १६ प्राणीय त्रुटि होती है। इसी प्रकार १६ प्राणीय त्रुटि की एक आध्यात्मिक रात्रि होती है। इस गणना के अनुसार ३६ अंगुल वाले प्राणचार में १६ + १६ = ३२ अंगुल वाले नि:श्वास और प्रश्वास का एक दिन रात होता है। शेष ४ अंगुल में २-२ अंगुल की दो सन्ध्यायें होती हैं। प्राण का अन्दर जाना अर्थात् श्वास लेना आध्यात्मिक रात्रि है। यह ध्यान रखना चाहिये कि इस यौगिक अहोरात्र की गणना में प्राण को सूर्य माना गया है। उसी का बाह्याभ्यन्तर संचरण आध्यात्मिक दिन और रात्रि का नियामक है। प्राण के बाह्याभ्यन्तर संचरण के समय को २७ से भाग करने पर २७ नक्षत्र तथा ३ और ९ से भाग करने पर १२ राशियों का उदय होता है। इसे इस प्रकार समझना चाहिये - हृदय से लेकर ऊर्ध्व द्वादशान्त तक प्राण का प्रवाह माना जाता है। इसमें हृदय से लेकर कण्ठ तक का ९ अंगुल का प्रवाहकाल प्रथम प्रहर, कण्ठ से तालु के मध्य तक का प्रवाहकाल द्वितीय प्रहर, तालु के मध्य से ललाट तक ९ अंगुल तक तृतीय प्रहर और ललाट से ९ अंगुल ऊपर द्वादशान्त तक चतुर्थ प्रहर होता है। इस प्रकार हृदय से लेकर द्वादशान्त तक ३६ अंगुल का प्राणचार चार प्रहर वाला आध्यात्मिक दिन और उसके विपरीत क्रम से द्वादशान्त से लेकर हृदय तक का प्राणीय आभ्यन्तर संचार चार प्रहर की रात्रि होती है।
उपर्युक्त क्रम से बाहरी एक घटिका का आभ्यन्तरीण १२ मास या एक वर्ष होता है। इसका किञ्चित् विस्तारपूर्वक वर्णन किया जा रहा है। हृदय कमल से लेकर ऊर्ध्व द्वादशान्त तक दिन के समय मकर, कुम्भ, मीन, मेष, वृष और मिथुन ये छ: राशियाँ मानी गयी हैं। अर्थात् छ: अंगुल प्राणचार का काल एक राशि की स्थिति का काल अर्थात् एक मास का काल है। इस रीति से ६ ६ = ३६ अंगुल के नि:श्वास में मकर से लेकर मिथुन तक की छ: राशियाँ और प्रश्वास में कर्क से लेकर धनु तक की छ: राशियों की भावना योगी कर लेता है। एक वर्ष की भाँति आभ्यन्तरीण शताब्दी सहस्राब्दी इत्यादि की भावना भी योगी द्वारा की जाती है।
ऊपर बिन्दु अर्धचन्द्र इत्यादि की चर्चा की गयी है। बिन्दु का आकार गोल और देखने में दीपक के समान है। इसका स्थान भ्रूमध्य से ऊपर ललाट में है। इसमें प्रवेश करने पर ज्योतिर्मय ज्ञानरूप से ईश्वर के बोध की सूचना मिलती है। बिन्दु प्रवेश के बाद जागतिक ज्ञान लुप्त हो जाता है। बिन्दु का काल अर्धमात्रा १/२ मात्रा का काल है। इस स्तर में प्रकृति का स्फुरण नहीं रहता केवल पुरुष तत्त्व ही अभिन्न रूप से स्फुरित होता है।
बिन्दु के बाद अर्धचन्द्र है। इसकी मात्रा १/४ है। यह बिन्दु के ऊपर स्थित है। तृतीय भूमिका रोधिनी है। इसकी कालमात्रा और अधिक सूक्ष्म अर्थात् १/८ है। इस रोधिका का भेदन साधारण योगी के वश का नहीं है। यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव नामक पञ्चकारण की भी शक्ति इस भूमिका में रुक जाती है। एकमात्र योगी ही इसका भेदन कर सकते हैं। रोधिनी के बाद नाद और नादान्त दो भूमियाँ हैं। नाद की मात्रा १/१६ और नादान्त की उसका आधा अर्थात् १/३२ मात्रा है। नाद का स्थान ब्रह्मरन्ध्र के मुख में है। यहाँ विशुद्ध निर्गुण शब्द का अनुभव होता है। नादान्त शून्य है। योगियों को जिन पाँच शून्यों का अनुभव होता है उनमें बिन्दु प्रथम शून्य है रोधिनी दूसरा शून्य। नादान्त तीसरा शून्य है। नादान्त के बाद शक्ति स्थान है। यह स्थान ब्रह्मरन्ध्र के ऊपर है। इसी को ऊर्ध्वकुण्डली कहते हैं। विश्व इसमें अनुन्मिषित रूप से पड़ा रहता है। पृथ्वीपर्यन्त सब तत्त्व और भुवन इसी शक्ति तत्त्व के प्रपञ्च हैं। इसकी मात्रा १/६४ है। इसमें आनन्दसत्ता का अनुभव होता है। इसके बाद व्यापिनी है। इसकी मात्रा १/१२८ है। व्यापिनी के अनन्तर समना का स्थान है। यही परा शक्ति है। इसी पर आरूढ़ होकर शिव समग्र विश्व की सृष्टि, रक्षा, संहार, निग्रह और अनुग्रह रूपी पाँच कार्यों का सम्पादन करते हैं। तान्त्रिक मत में महेश्वर कर्त्ता हैं और शक्ति कारण। समना की मात्रा १/२५६ है। समना के ऊपर उन्मना है। कुछ तान्त्रिक विद्वानों का विचार है कि उन्मना की मात्रा १/५१२ है। किन्तु अन्य तान्त्रिक कहते हैं कि उन्मना उच्चारणातीत है। इसका उच्चारण काल सम्भव नहीं है। शब्द ब्रह्म जो कि नादरूपी है, की यहीं समाप्ति होती है।
अब तक के विवरण का निष्कर्ष यह है कि स्थूलवर्ण का लघुतम उच्चारण काल एक मात्रा होता है। विश्व से समना पर्यन्त सूक्ष्म वर्णों का उच्चारण काल क्रमश: आधा होता जाता है। इस प्रकार बिन्दु का उच्चारण काल अर्ध मात्रा और इसी रीति से समना तक का उच्चारण काल १/२५६ मात्रा होता है। यह मन की सूक्ष्मतम मात्रा का उच्चारण है। मात्रा के और सूक्ष्म होने पर मन की क्रिया नहीं रह जाती इसलिये इसे उन्मना कहा जाता है।
उपर्युक्त वर्णन का अभिप्राय यह है कि योगी पूर्वोक्त रीति से विमर्श करता हुआ क्षण, घटिका, प्रहर, अहोरात्र, मास, वर्ष, युग, मन्वन्तर, कल्प और महाकल्प आदि को यौगिक भावना द्वारा व्याप्त कर लेता है। वह अपने एक-एक प्राणवाह में इन विशाल कालखण्डों का समावेश करता हुआ ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, श्रीकण्ठनाथ, अनन्तनाथ, रुद्र, ईश्वर, सदाशिव आदि तत्त्वेश्वरों के काल को दृढ़ भावना से व्याप्त कर लेता है। इस योग के सिद्ध हो जाने पर वह काल के संकोच अर्थात् इसकी सीमा से मुक्त हो जाता है। तत्पश्चात् वह अकाल अर्थात् परमेश्वर की परमेश्वरता से समाविष्ट होकर उसका अनुभव करने लगता है।
शरीर के अन्दर क्षण से लेकर समना पर्यन्त काल की सीमा का भेदन करने अथवा अनुभव करने के परिणामस्वरूप, पिण्डब्रह्माण्ड सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्ड के अथवा बाह्यजगत् के काल का भेदन अपने आप हो जाता है। यही कालाध्वा का संक्षिप्त परिचय है जिस पर चल कर योगी मोक्ष, शिवसमावेश या शिवसामरस्य प्राप्त करता है।

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