Wednesday, December 16, 2009

SALTY COFFEE

SALTY COFFEE
He met her on a party. She was so outstanding, many guys chasing after her, while he was so normal, nobody paid attention to him. At the end of the party, he invited her to have coffee with him, she was surprised, but due to being polite, she promised. They sat in a nice coffee shop, he was too nervous to say anything, she felt uncomfortable, she thought, please, let me go home.. Suddenly he asked the waiter:



"Would you please give me some salt? I'd like to put it in my coffee."


Everybody stared at him, so strange! His face turned red, but, still, he put the salt in his coffee and drank it.


She asked him curiously: why you have this hobby?


He replied: "when I was a little boy, I was living near the sea, I liked playing in the sea, I could feel the taste of the sea, just like the taste of the salty coffee. Now every time I have the salty coffee, I always think of my childhood, think of my hometown, I miss my hometown so much, I miss my parents who are still living there".


While saying that tears filled his eyes. She was deeply touched.


That's his true feeling, from the bottom of his heart. A man who can tell out his homesickness, he must be a man who loves home, cares about home, has responsibility of home.. Then she also started to speak, spoke about her faraway hometown, her childhood, her family.

That was a really nice talk, also a beautiful beginning of their story. They continued to date. She found that actually he was a man who meets all her demands; he had tolerance, was kind hearted, warm, careful. He was such a good person but she almost missed him!

Thanks to his salty coffee! Then the story was just like every beautiful love story, the princess married to the prince, then they were living the happy life... And, every time she made coffee for him, she put some salt in the coffee, as she knew that's the way he liked it.


After 40 years, he passed away, left her a letter which said: "My dearest, please forgive me, forgive my whole life lie. This was the only lie I said to you---the salty coffee. Remember the first time we dated? I was so nervous at that time, actually I wanted some sugar, but I said salt It was hard for me to change so I just went ahead.




I never thought that could be the start of our communication! I tried to tell you the truth many times in my life, but I was too afraid to do that, as I have promised not to lie to you for anything..


Now I'm dying, I afraid of nothing so I tell you the truth: I don't like the salty coffee, what a strange bad taste.. But I have had the salty coffee for my whole life! Since I knew you, I never feel sorry for anything I do for you. Having you with me is my biggest happiness for my whole life. If I can live for the second time, still want to know you and have you for my whole life, even though I have to drink the salty coffee again".


Her tears made the letter totally wet.


Someday, someone asked her: what's the taste of salty coffee? It's sweet. She replied.


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Love is not 2 forget but 2 forgive

Not 2 c but 2 understand

Not 2 hear but 2 listen

Not 2 let go but HOLD ON !!!!

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Tuesday, August 25, 2009

धर्म केवल आचरण है

श्री आनंदमूर्ति धर्म व्यावहारिक है , वह सैद्धांतिक नहीं है। कौन धार्मिक है, कौन नहीं -यह उसकी विद्या, बुद्धि, पद या मर्यादा से प्रमाणित नहीं होता है। धार्मिकता प्रमाणित होती है आचरण से। जिन्हें धार्मिक बनना है, उन्हें अपना आचरण ही सुधारना होता है। पोथी पढ़कर कोई विद्वान नहीं हो सकता है। लोग कहते हैं कि तब विद्या क्या है? 'सा विद्या या विमुक्तये।' विद्या वही है जिससे मुक्ति मिलती है। तब मुक्ति क्या है? मुक्ति है बंधन से छुटकारा। किंतु एक बंधन से छुटकारा मिल जाए, तो दोबारा भी तो बंधन हो सकता है। फिर क्या होगा? इसलिए एक बार बंधन से ऐसा छुटकारा हो जाए कि दोबारा बंधन की संभावना ही नहीं रहे, तो वह जो विशेष प्रकार की मुक्ति हुई -इसी को विमुक्ति कहते हैं। जिसके द्वारा विमुक्ति मिलती है, उसी को विद्या कहते हैं ; विद्या जिनमें है वही हैं विद्वान। लेकिन विद्वान वही हैं जिनका आचरण बन गया है। इसलिए मैंने कहा था -धर्म है 'आचरणात् धर्म।' अनपढ़ आदमी भी धार्मिक बन सकते हैं, महापुरुष बन सकते हैं। और महामहोपाध्याय पंडित भी अधार्मिक हो सकते हैं। तुम लोगों को मैं बार-बार कहता हूं कि अपना आचरण बना लो। आचरण सब कोई बना सकता है। आदर्श का प्रचार करना जैसे साधक का काम है, वैसे हीं स्वयं को पवित्र बनना भी साधक का काम है। कहा गया था, 'आत्ममोक्षार्थ जगत्हिताय च।' तुम अपने सत् बन गए, उससे काम नहीं चलेगा, समाज को भी सत् बनाना होगा। अपने साफ-सुथरा रहते हो, वह यथेष्ठ नहीं है। महामारी के समय मान लो, तुम्हारा घर साफ-सुथरा है, तुम खूब स्नान करते हो, किंतु बस्ती एकदम गंदी है, उस दशा में महामारी से नहीं बचोगे। क्योंकि, वातावरण तो खराब है। तुम स्वयं धार्मिक बनोगे और तुम्हारे पड़ोस, तुम्हारे परिचित जितने लोग हैं, परिवार के और लोग पापी रह गए तो तुम भी पापाचार से नहीं बचोगे, क्योंकि उनका असर तुम पर पड़ेगा। मान लो, पति धार्मिक है और पत्नी नहीं है, पति घूस लेना नहीं चाहते हैं और पत्नी कहती है घूस लो -तो घर में लड़ाई होगी। ठीक उलटा भी हो सकता है। पत्नी धार्मिक है और पति नहीं है। ऐसे में पति भी दबाव डाल सकता है कि ऐसा करो, वैसा मत करो। उसके सद कार्यों में बाधा भी पहुंचा सकता है। इसलिए तुम धार्मिक हो -यही यथेष्ट नहीं है। अपने वातावरण को भी धार्मिक बनाना पड़ेगा। तुम साफ-सुथरा रहोगे और बस्ती, मुहल्ला को भी साफ-सुथरा रखोगे, तभी तुम भी महामारी से बचोगे। और यह जो धर्म का प्रचार है, इस आचार में दार्शनिक ज्ञान गौण है। मुख्य है अपना आचरण। लोग तुम्हारे पांडित्य से जितना प्रभावित होंगे, तुम्हारे आचरण से उससे अधिक प्रभावित होंगे। कहा भी गया है कि धर्माचरण, धर्म का आचरण। आचरण ठीक होने से तुम्हारी भी तरक्की हो रही है - रूहानी तरक्की हो रही है, आध्यात्मिक उन्नति हो रही है, और जो तुम्हारे संपर्क में आ गए हैं, वे भी तुम्हारे आचरण से प्रभावित होंगे। मान लो, तुम सिद्धांत के रूप में धार्मिक बन गए हो -काफी धार्मिक पुस्तकें पढ़ लिए हो, किंतु आचरण ठीक नहीं है, तो उससे क्या होगा? तुम्हारी तो आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी, मन नहीं बदलेगा और लोग भी प्रभावित नहीं होंगे। लोग कहेंगे -हां, उन्होंने काफी पुस्तकें पढ़ी हैं, पर खुद उनमें तो कुछ नहीं है। तुम्हारा असर दूसरों पर नहीं पड़ेगा, क्योंकि जो अपने को नहीं बनाता है, अपने बनने की कोशिश नहीं की है, वह दूसरों को कैसे बनाएगा? धर्म आचरण की चीज है। तुम लोगों से मैं कहता हूं कि यम-नियम में कट्टर बनो और साधना में नियमित बनो। जब तक दुनिया में हो अपना कर्त्तव्य करो और दूसरों को भी कर्त्तव्य की राह पर ले चलो। यही तुम्हारा काम है। और याद रखो कि तुम्हारे सामने एक विराट व्रत है, एक विराट मिशन है और उसी मिशन को पूरा करने के लिए तुम इस दुनिया में आए हो। तुम तुच्छ जानवर के समान नहीं हो। जय तुम्हारी होगी। प्रस्तुति : आचार्य दिव्यचेतनानंद

Tuesday, May 19, 2009

काल गणना

षडध्वा
(जिस षडध्वा की चर्चा आगे होने वाली है वह कोई कपोल कल्पना नहीं हैं। आगम शास्त्र तो इसमें प्रमाण है ही। वर्त्तमान समय में डॉ. जनेश्वर प्रसाद जायसवाल, प्राध्यापक, डिग्री कॉलेज बड़ागाँव, वाराणसी ने स्वर्ग नरक तथा नवग्रह आदि का अपनी दिव्य दृष्टि से प्रत्यक्ष किया है। जिज्ञासु व्यक्ति उनसे सम्पर्क कर आगमिक तथ्यों की पुष्टि कर सकते हैं)
षडध्वा का अर्थ है - षट् = छ:, अध्व = मार्ग। अपने शिवभाव को पहचानने का मार्ग ही अध्व कहलाता है। यह छ: प्रकार का है। शिवसमावेश अथवा मोक्ष को प्राप्त करने के लिये विश्व का भेदन अर्थात् विश्व के रहस्य का अवबोध आवश्यक होता है। तन्त्र के भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय इसके लिये भिन्न-भिन्न उपाय बतलाते हैं। प्रत्यभिज्ञा दर्शन या त्रिक शास्त्र के अनुसार शिवसमावेश के लिये चार प्रकार के उपाय बतलाये गये हैं- अनुपाय, शाम्भवोपाय, शाक्तोपाय और आणवोपाय। षडध्वा का सम्बन्ध आणवोपाय से है।
यह जगत् शब्द और अर्थ रूप है। शब्द और अर्थ को नाम और रूप भी कहा गया है। वेदान्त इस जगत् को नाम रूपात्मक मानता है-
'अस्ति भाति प्रियं नाम रूपं चेत्यंशपञ्चकम् ।
आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपमथद्वयम् ।।'
(परम सत्ता के अस्ति = सत्, भाति = चित् , प्रिय = आनन्द, नाम और रूप ये पाँच अंश हैं। इनमें से प्रथम तीन अंश ब्रह्म का रूप है, शेष दो जगत् का रूप है।)
जैसा कि पहले कहा जा चुका है परा स्थिति में केवल शब्द या नाद रहता है। अर्थ उसमें निगूढ़तम स्थिति में रहता है। शनै:-शनै: विकास के क्रम से दोनों पृथक् आभासित होने लगते हैं। अपनी पृथक् स्थिति में शब्द और अर्थ के तीन-तीन प्रकार होते हैं। शब्द के वर्ण, मन्त्र और पद तथा अर्थ के कला तत्त्व और भुवन ये छ: प्रकार हैं। इन्हीं को षडध्वा कहा गया है। इन्हें काल अध्वा और देश अध्वा भी कहते हैं। सर्वप्रथम काल अध्वा का विचार प्रस्तुत है-
कालाध्वा -
काल दो प्रकार का होता है- बाह्य या सौर और आभ्यन्तर या आध्यात्मिक।
'कालो द्विधाऽत्र विज्ञेय: सौरश्चाध्यात्मिक: प्रिये।'
(स्व.तं. ७/२)
बाह्य काल -
सृष्टि के क्रम में संवित् का योगदान होता है। यह संवित् सबसे पहले प्राणरूप में परिणत होती है-
'प्राक् संवित् प्राणे परिणता।'
प्राण की गति दो प्रकार की होती है -१ स्वाभाविक या स्पन्दात्मक, २- प्रयत्नजन्य या क्रियात्मक। प्राण के स्वाभाविक स्पन्दन से वर्णों की उत्पत्ति होती है। इन वर्णों का रूप निश्चित और सर्वत्र समान होता है। किन्तु वर्णों की समष्टि मन्त्र और पद का उदय योगी की इच्छा से होता है। वर्णों की अभिव्यक्ति के लिये इच्छा या प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती, ये निरन्तर अभिव्यक्त होते रहते हैं। इसी प्राण को आधार बनाकर महाकाल का उदय होता है। चूँकि वर्ण अपनी प्रारम्भिक अवस्था में अखण्ड, नाद स्वरूप हैं इसलिये वहाँ काल भी अखण्ड है। अखण्ड होने के कारण इसे महाकाल कहा जाता है। मूल में नाद का प्रवाह ऋजु रहता है वक्र नहीं। वर्ण सर्वदा प्रवहमान है। इसका कभी भी तिरोभाव नहीं होता। वायु की वक्रगति के कारण जब अखण्ड रूप में उठ रहे नाद को झटका लगता है तब वह ऋजु नाद खण्ड-खण्ड हो जाता है और अकारादि क्षकारान्त ५० वर्णों का उदय होता है। इन उदित वर्णों का अस्त भी होता है। किन्तु यह अस्त ऐकान्तिक और आत्यन्तिक नहीं है। इसके पीछे पुन: उदय की सम्भावना रहती है। खण्डकाल का निर्धारण वर्णों की इन्हीं उदयास्तमयताओं के कारण होता है। सूक्ष्म वर्ण के तीन स्तर हैं - मध्यमा, पश्यन्ती और परा। सूक्ष्मता का तारतम्य तीनों स्तरों में रहता है और सूक्ष्म से सूक्ष्मतर सूक्ष्मतम होता चला जाता है। सूक्ष्मतम काल के भान के लिये सूचीशतपत्र न्याय को जानना आवश्यक है। कमल की एक सौ पंखुड़ियों को ऊपर नीचे क्रम में रखकर उन्हें सूई से आर पार छेदें। एक पंखुड़ी के छिदने में जितना समय लगता है वह एक क्षण होता है। आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार चित्त में एक ज्ञान का परिस्पन्द जितनी देर तक रहता है वह एक क्षण होता है।
'कालस्तु भेदकस्तस्य स तु सूक्ष्म: क्षणो मत:।
सौक्ष्म्यस्य चावधिर्ज्ञानं यावत्तिष्ठति स क्षण:।।'
(तं. आ. ७/२५)
(उस ज्ञान का भेदक काल है, दोनों साथ-साथ रहते हैं। सूक्ष्म काल को क्षण कहा गया है। सूक्ष्मता की सीमा एक ज्ञान है उस ज्ञान का एक परिस्पन्द जब तक रहता है वह एक क्षण होता है)
काल और वर्ण का साहचर्य है। सूक्ष्म और अखण्ड वर्ण के उदय में क्रम नहीं है किन्तु स्थूल वर्ण के उदय में क्रम है। यह क्रम अवर्ग, कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, यवर्ग और शवर्ग नामक आठ वर्गों का होता है। शरीर में प्राण का संचार ३६ अंगुल का होता है। इस ३६ अंगुल वाले एक प्राण चार में आठों वर्ग निहित रहते हैं। इस दृष्टि से एक वर्ग का उदय ३६ ८ = ४.५ अंगुल का होता है। एक दिन-रात अर्थात् २४ घण्टे में प्राण अर्थात् नि:श्वास प्रश्वास की गति २१६०० बार होती है तो १ घण्टा में २१६०० २४ = ९०० बार होगी। इस प्रकार १ घण्टा में ९०० ४.५ = २०० अंगुल का प्राणचार होता है तो २४ घण्टे में २०० २४ = ४८०० अंगुल प्राणचार होगा। इस प्र्रकार आठों वर्ग अर्थात् ५० वर्ण प्राण में ४८०० ८ = ६०० बार संक्रमित होता है। इस गणना से एक वर्ण का संक्रमण काल ६०० ५० = ३०००० बार संक्रमित होगा। इससे यह निष्कर्ष निकला कि २१६०० श्वास प्रश्वास में संक्रमण करने वाला वर्ण एक श्वास से भी कम समय लेता है। सम्भवत: इसी दृष्टि से आचार्य अभिनव गुप्त ने एक वर्ण के संक्रमण काल को एक क्षण कहा है। स्वच्छन्द तन्त्र के अनुसार मनुष्य के एक अक्षिनिमेष ( = पलकों का मिलना) का अष्टमांश एक क्षण होता है -
'मानुषाक्षिनिमेषस्य अष्टमांश: क्षण: स्मृत:।
(स्व. तं. ११/१०२)
२ क्षण की एक त्रुटि, २ त्रुटि का एक लव होता है। २ लव का एक निमेष, १५ निमेष की एक काष्ठा होती है। ३० काष्ठा की एक कला, ३० कला का एक मुहूर्त्त और ३० मुहूर्त्त का एक दिन-रात होता है।
३६० मानवीय दिन-रात का मानवीय वर्ष होता है। (इस गणना से १०० वर्ष की मनुष्य की पूर्ण आयु और १२० वर्ष की परमायु कही गयी है) १५ दिन-रात का एक पक्ष, २पक्ष का एक मास, २ मास की एक ऋतु, ३ ऋतुओं का एक अयन और २ अयन का एक वर्ष होता है।
मनुष्यों का एक वर्ष पितरों का एक दिन होता है। (किसी-किसी मत में मनुष्यों का एक माह पितरों का एक दिन-रात होता है।) उत्तरायण पितरों का दिन और दक्षिणायन पितरों की रात होती है। १४/१५ जनवरी से लेकर १३/१४ जुलाई तक उत्तरायण और १४/१५ जुलाई से लेकर १३/१४ जनवरी तक दक्षिणायन होता है। पितरों के एक दिन की गणना से उनके ३६० दिनों का उनका एक वर्ष होता है। देवताओं का भी एक वर्ष उतने ही दिन-रात का होता है। इस प्रकार मनुष्यों के ३६० वर्ष का देवताओं का एक वर्ष होता है। इस गणना के अनुसार देवताओं के १२००० दिव्य वर्ष का एक चतुर्युग होता है। उक्त १२००० वर्षों में से सत्ययुग ४००० दिव्य वर्ष, त्रेतायुग ३००० दिव्य वर्ष, द्वापर २००० दिव्य वर्ष और कलियुग १००० दिव्य वर्ष का होता है। कुल मिलाकर (४००० + ३००० + २००० + १०००) = १०००० वर्ष हुए। शेष २००० वर्षों में से प्रत्येक युग का दशमांश उनका सन्धिकाल होता है। इस प्रकार सत्युग का ४०० वर्ष, त्रेता का ३०० वर्ष, द्वापर का २०० वर्ष और कलियुग का १०० दिव्य वर्ष सन्ध्या काल होता है। चूँकि प्रत्येक युग के आदि और अन्त में सन्धि होती है इसलिये चारों युगों का सम्पूर्ण सन्धि काल (४०० + ३०० + २०० + १००) २ = २००० वर्षों में मनुष्यों के ३६० वर्षों का गुणन करने से ४३२०००० मनुष्य वर्ष की एक चतुर्युगी होती है।
उक्त गणना के अनुसार ७१ चतुर्युगी का एक मन्वन्तर होता है। मानवीय वर्ष के अनुसार ३०६७२००० वर्षों का एक मन्वन्तर होता है। एक मन्वन्तर के बीत जाने और दूसरे मन्वन्तर का प्रारम्भ होने के बीच ५००० दिव्य वर्षों का सन्धिकाल होता है। इस सन्धिकाल के सहित १००० चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है। इस ब्रह्म दिन को कल्प कहते हैं। मानवीय गणना के अनुसार ४०३०२००००००० मानुष वर्षों का एक कल्प होता है। इसमें सन्धिकाल ३४५६०००० मानुष वर्षों का है।
उक्त गणना के अनुसार ७१ चतुर्युगी का एक मन्वन्तर होता है। मानवीय वर्ष गणना के अुनसार ३०६७२०००० वर्षों का एक मन्वन्तर होता है। एक मन्वन्तर के बीत जाने और दूसरे मन्वन्तर का प्रारम्भ होने से पहले बीच में ५००० दिव्य वर्षों का सन्धिकाल होता है। इस प्रकार सन्धिकाल सहित १००० चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है। इस ब्राह्म दिन को कल्प कहते हैं। मानवीय वर्ष गणना के अुनसार ४०३०२००००००० वर्षों का एक कल्प होता है। इसमें ३४५६०००० मानुष वर्षों का सन्धि काल होता है।
ब्रह्मा के एक दिन के अन्त तक भू:भुव: आदि सात लोकों, सात पातालों और नरकों की सत्ता रहती है। जब ब्रह्मा के दिन का अन्त हो जाता है तब उपर्युक्त भूलोक आदि का संहार हो जाता है। यह संहार कालाग्निरुद्र के द्वारा किया जाता है जब कि सृष्टि का कार्य ब्रह्मा करते हैं। ब्रह्मा के दिन का जो परिमाण बतलाया गया उनकी रात्रि भी उतने ही परिमाण की होती है।
काल गणना के प्रसङ्ग में काल के स्तरों की चर्चा अनावश्यक नहीं होगी अत: उसका भी परिचय प्रस्तुत है। आगमशास्त्र के अनुसार गणना के स्तरों की संख्या १८ है। एक स्तर से अव्यवहित दूसरा स्तर पूर्व स्तर की अपेक्षा दश गुने मान का होता है। इस रीति से १ से लेकर परार्ध तक के १८ स्तर इस प्रकार हैं -
१. एक २. दश ३. सौ ४. सहस्त्र ५. अयुत ६. लक्ष ७. नियुत ८. कोटि ९. अर्बुद १०. वृन्द ११. खर्व १२. निखर्व १३. शङ्कु १४. पद्म १५. सागर १६. मध्य १७. अन्त्य और १८. परार्ध।
ब्रह्मा अपने अहोरात्र के काल के मान से १०० वर्ष तक जीवित रहते हैं। इस सौ वर्ष के काल को ब्राह्म कल्प कहा जाता है। कल्प का अन्त होने के बाद ब्रह्मा शक्तिपात न होने पर अपनी अपेक्षा उत्कृष्ट कारण में लीन हो जाते हैं। यदि उनके ऊपर परमेश्वर का शक्तिपात हो गया है तो वे परमेश्वर में लीन होते हैं। ब्रह्मा के एक महाकल्प अर्थात् १०० वर्ष का विष्णु का एक दिन होता है। इस परिमाण से विष्णु की आयु १०० वर्ष की होती है। एक सौ वर्ष पूरा होने पर विष्णु भी ब्रह्मा की भाँति पर कारण में अथवा परमेश्वर में लीन हो जाते हैं। विष्णु लोक का १०० वर्ष रुद्रलोक का एक दिन होता है। इस मान से रुद्र अपने १०० वर्ष तक जीवित रहते हैं। वे प्रतिदिन ब्रह्मा और विष्णु की सृष्टि करते रहते हैं। जितना बड़ा रुद्र का दिन होता है उतनी ही बड़ी उनकी रात्रि भी होती है। इस परिमाण से जब रुद्र का १०० वर्ष पूरा हो जाता है तब वह शतरुद्र का १ दिन होता है। जब शतरुद्र अपना एक सौ वर्ष पूर्ण कर लेते हैं तब शतरुद्र का पर कारण में लय हो जाता है और इस लीन शतरुद्र का स्थान दूसरा शतरुद्र ग्रहण करता है। इस प्रकार जब एक सौ शतरुद्र क्रमश: लीन और नियुक्त हो लेते हैं तब सौवें शतरुद्र के पर कारण में लीन होने पर यह ब्रह्माण्ड नष्ट हो जाता है। नष्ट होकर यह जलतत्त्व में लीन हो जाता है। उस समय ब्रह्माण्ड के संहारक कालाग्निरुद्र भी काल (= परमेश्वर) तत्त्व में लीन हो जाते हैं। यही पार्थिवाण्ड या ब्रह्माण्ड के लय की प्रक्रिया है।
एक ब्रह्माण्ड पञ्चमहाभूतों, नरकों, सप्तलोकों, चतुर्दश भुवनों, उनमें रहने वाले ऋषि आदि एवं पर्वत सागर, ग्रह, नक्षत्र आदि से परिपूर्ण होता है। तात्पर्य यह है कि एक-एक ब्रह्माण्ड में सम्पूर्ण ३६ तत्त्व रहते हैं। पार्थिवाण्ड का संहार जलतत्त्व में होता है। इस तत्त्व के अधिष्ठातृ देव अमरेश हैं। शतरुद्रों का एक सौ वर्ष अमरेश का एक दिन होता है। शतरुद्रों की भाँति एक सौ अमरेश जब क्रम से प्राप्त अपनी-अपनी नियुक्तियों का भोग कर लेते हैं और सौवें अमरेश का काल पूरा हो जाता है तब वे भी तेजस् तत्त्व के अधिपति रुद्र से अधिष्ठित तेजस् तत्त्व में लीन हो जाते हैं। तैजस रुद्रों का १०० वर्ष वायु तत्त्व के अधिष्ठाता का एक दिन होता है। इस रीति से आकाश आदि पूर्व-पूर्व तत्त्वों के अधिष्ठाताओं के १०० वर्ष उत्तरोत्तरवर्त्ती तन्मात्र आदि के अधिष्ठाताओं का एक दिन होता है। प्रत्येक तत्त्वाधिष्ठाता अपनी आयु का १०० वर्ष पूरा करने पर अपने उत्तरवर्त्ती सूक्ष्मतर तत्त्वाधिष्ठाता में तथा पूर्ववर्त्ती तत्त्व अपने उत्तरवर्ती सूक्ष्मतर तत्त्व में लीन हो जाता है। कालगणना का यह क्रम अहंकार, बुद्धि, माया के पाँच कञ्चुक, माया शुद्धविद्या, ईश्वर, सदाशिव, बिन्दु, अर्धचन्द्र, रोधिनी, नाद (नादान्त), शक्ति तक चलता रहता है।
आज के विज्ञान की काल गणना की व्यवस्था प्रकाश वर्ष के माध्यम से की जाती है। तन्त्र में गणना के जो १८ स्तर हैं उनके नाम ऊपर दिये जा चुके हैं। इन्हीं के माध्यम से समना तक की काल गणना ऋषियों द्वारा की गयी है। यहाँ इसकी चर्चा अनावश्यक नहीं होगी। पृथिवी से लेकर प्रकृति तत्त्व तक का काल परिमाण ऊपर बतलाया जा चुका है। यह विश्व प्रकृति तत्त्व में अत्यन्त सूक्ष्म रूप से लीन होकर प्रसुप्त जैसा पड़ा रहता है। पूर्व गणना के अनुसार प्रकृति तत्त्व में निविष्ट रुद्रों की जो आयु है वह छब्बीसवें रुद्र श्रीकण्ठनाथ का एक दिन होता है। इनके दिन काल में चौहद प्रकार के प्राणी, प्रजापति, पितृगण, सांख्यसिद्ध पुरुष, वेदान्तसिद्ध पुरुष, वेद, ओंकार आदि स्थित रहते हैं। श्रीकण्ठनाथ के दिन का अन्त होने पर वे सब अपने कारण में लीन हो जाते हैं। रात्रि बीत जाने पर बुद्धितत्त्वस्थ ब्रह्मा पुन: विश्वसृष्टि करते हैं। इस प्रकार बुद्धितत्त्वस्थ ब्रह्मा का ३६०० प्रलय और सृष्टि अव्यक्तस्थ रुद्रों का एक दिन होता है। अव्यक्त या प्रकृति के दिन का अन्त होने पर विश्वनायक श्रीकण्ठनाथ रात्रि बीत जाने पर पुन: सृष्टि करते हैं। पूर्वोक्त रीति से उनके ३६० दिन के वर्ष और १०० वर्ष के आयुष्काल में करोड़ों सृष्टिप्रलय घटित होते हैं।
प्रकृति के १०० वर्ष के काल का अन्त होने पर माया के पूर्वोक्त कला आदि पाँच तत्त्व या कञ्चुक अपने-अपने परिमाण के अनुसार कालभोग करते हैं। अर्थात् पूर्वोक्त गणना के अनुसार प्रकृति का १०० वर्ष नियति का एक दिन, इसी प्रकार नियति का सौ वर्ष काल का एक दिन, काल का सौ वर्ष राग का एक दिन, राग का सौ वर्ष विद्या का एक दिन और विद्या का सौ वर्ष काल, राग, विद्या और कला तत्त्व का एक दिन होता है। इस हिसाब से इनका १०० वर्ष माया का एक दिन होता है। माया के काल के परार्ध को १०० से गुणित करने पर ईश्वर का एक दिन होता है। ईश्वर के १०० वर्ष को परार्ध से गुणित करने पर सदाशिवनाथ का एक दिन होता है। इसी रीति से स्थूल सदाशिव के १०० वर्ष को परार्ध से गुणित करने पर बिन्दु तत्त्वस्थ सूक्ष्म सदाशिव तत्त्व का एक दिन होता है। इस सदाशिव के १०० वर्ष को परार्ध से गुणित करने पर नाद तत्त्वस्थ सूक्ष्म सदाशिव का एक दिन होता है। इस रीति से नादतत्त्वस्थ देवता के १०० वर्ष को परार्ध से गुणित करने पर शक्ति तत्त्वस्थ देवता का एक दिन होता है जिसका परिमाण १०० परार्ध १०० परार्ध मायीय वर्ष होता है। शक्ति की रात्रि भी इतनी ही बड़ी होती है।
शक्ति तत्त्व का काल १०० १०० परार्द्ध संख्या वाला है। इस परार्द्ध संख्या को एक कोटि से गुणा करने पर व्यापिनी का एक दिन होता है। व्यापिनी तत्त्व के अधिष्ठाता अनाश्रित शिव हैं। व्यापिनी के इस काल को पुन:परार्ध से गुणा करने पर समना तत्त्व का एक दिन होता है। समना के भी अधिष्ठाता अनाश्रित ही हैं। काल की सीमा यहीं तक है -
'समनान्तं वरारोहे पाशजालमनन्तकम् ।'
(स्व. तं. ४/७३२)
समना के ऊपर उन्मना तत्त्व है जहाँ काल नहीं है। यह परम सत्ता की नित्योदित दशा है। पहले कालाध्वा के जिस प्रकरण का प्रारम्भ किया गया था वह कालाध्वा क्षण से लेकर समना तक के काल को अपनी सीमा में रखता है। योगी के पृथिवी से लेकर समना तक के तत्त्व का भेदन करने का अर्थ है क्षण से लेकर समना तत्त्व तक के काल का रहस्यज्ञान करना। यह बाह्य काल गणना है।
आध्यात्मिक काल -
त्वक्, मांस, रक्त, मज्जा अस्थि और शुक्र नामक छ: कोशों से निर्मित इस शरीर में परमेश्वर की स्वातन्त्र्य शक्ति आत्मा के रूप में विराजमान है। इस शरीर में जितने रोमकूप हैं उतनी नाड़ियाँ हैं। इस नाड़ी संजाल में १० नाड़ियाँ प्रमुख हैं - १. इडा २. पिङ्गला, ३. सुषुम्ना, ४. गान्धारी, ५. हस्तिजिह्वा, ६. पूषा, ७. यशस्विनी, ८. अलम्बुसा, ९. कुहू और १०. शंखिनी। इन नाड़ियों में, प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृककर, देवदत्त और धनञ्जय नामक दश वायु प्रवाहित होते रहते हैं। उक्त दशों नाड़ियों में भी इडा पिङ्गला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ प्रमुख हैं। पिङ्गला बिन्दु या ज्ञानशक्ति प्रधान नाड़ी है। इडा नाद अर्थात् क्रिया-शक्ति प्रधान नाड़ी है। इन दोनों नाड़ियों के बीच परमेश्वर की अद्याशक्ति की स्फुरत्तारूप सुषुम्ना नाड़ी है। प्राण उपर्युक्त इन्हीं तीनों नाड़ियों में प्रवाहित होता रहता है।
बाह्य त्रुटि की चर्चा पहले की जा चुकी है। उसी प्रकार प्राण में आगमिकों या योगियों ने त्रुटि की परिकल्पना की है। एक प्राणवाह अर्थात् एक नि:श्वास-प्रश्वास में १६ त्रुटियाँ होती हैं। एक प्राणीय त्रुटि बाह्य १२ त्रुटि के बराबर होती है। प्रकारान्तर से एक बाह्य त्रुटि = १/२ प्राणीय त्रुटि। इस प्रकार बाह्य एक क्षण प्राणीय एक त्रुटि का १/४ अंश होता है। इस क्रम से आभ्यन्तर अहोरात्र ३० त्रुटि का होता है। दूसरे शब्दों में बाह्य एक काष्ठा का आभ्यन्तरीण एक दिनरात होता है। जिस प्रकार बाहरी दिन का चतुर्थ भाग याम (=प्रहर) कहलाता है उसी प्रकार आभ्यन्तर याम भी होता है। इसकी मात्रा ४ प्राणीय त्रुटि मानी गयी है। प्राणीय दिन का अर्थ है - प्राण का बाहर जाना अर्थात् नि:श्वास। इसमें ४ ४ = १६ प्राणीय त्रुटि होती है। इसी प्रकार १६ प्राणीय त्रुटि की एक आध्यात्मिक रात्रि होती है। इस गणना के अनुसार ३६ अंगुल वाले प्राणचार में १६ + १६ = ३२ अंगुल वाले नि:श्वास और प्रश्वास का एक दिन रात होता है। शेष ४ अंगुल में २-२ अंगुल की दो सन्ध्यायें होती हैं। प्राण का अन्दर जाना अर्थात् श्वास लेना आध्यात्मिक रात्रि है। यह ध्यान रखना चाहिये कि इस यौगिक अहोरात्र की गणना में प्राण को सूर्य माना गया है। उसी का बाह्याभ्यन्तर संचरण आध्यात्मिक दिन और रात्रि का नियामक है। प्राण के बाह्याभ्यन्तर संचरण के समय को २७ से भाग करने पर २७ नक्षत्र तथा ३ और ९ से भाग करने पर १२ राशियों का उदय होता है। इसे इस प्रकार समझना चाहिये - हृदय से लेकर ऊर्ध्व द्वादशान्त तक प्राण का प्रवाह माना जाता है। इसमें हृदय से लेकर कण्ठ तक का ९ अंगुल का प्रवाहकाल प्रथम प्रहर, कण्ठ से तालु के मध्य तक का प्रवाहकाल द्वितीय प्रहर, तालु के मध्य से ललाट तक ९ अंगुल तक तृतीय प्रहर और ललाट से ९ अंगुल ऊपर द्वादशान्त तक चतुर्थ प्रहर होता है। इस प्रकार हृदय से लेकर द्वादशान्त तक ३६ अंगुल का प्राणचार चार प्रहर वाला आध्यात्मिक दिन और उसके विपरीत क्रम से द्वादशान्त से लेकर हृदय तक का प्राणीय आभ्यन्तर संचार चार प्रहर की रात्रि होती है।
उपर्युक्त क्रम से बाहरी एक घटिका का आभ्यन्तरीण १२ मास या एक वर्ष होता है। इसका किञ्चित् विस्तारपूर्वक वर्णन किया जा रहा है। हृदय कमल से लेकर ऊर्ध्व द्वादशान्त तक दिन के समय मकर, कुम्भ, मीन, मेष, वृष और मिथुन ये छ: राशियाँ मानी गयी हैं। अर्थात् छ: अंगुल प्राणचार का काल एक राशि की स्थिति का काल अर्थात् एक मास का काल है। इस रीति से ६ ६ = ३६ अंगुल के नि:श्वास में मकर से लेकर मिथुन तक की छ: राशियाँ और प्रश्वास में कर्क से लेकर धनु तक की छ: राशियों की भावना योगी कर लेता है। एक वर्ष की भाँति आभ्यन्तरीण शताब्दी सहस्राब्दी इत्यादि की भावना भी योगी द्वारा की जाती है।
ऊपर बिन्दु अर्धचन्द्र इत्यादि की चर्चा की गयी है। बिन्दु का आकार गोल और देखने में दीपक के समान है। इसका स्थान भ्रूमध्य से ऊपर ललाट में है। इसमें प्रवेश करने पर ज्योतिर्मय ज्ञानरूप से ईश्वर के बोध की सूचना मिलती है। बिन्दु प्रवेश के बाद जागतिक ज्ञान लुप्त हो जाता है। बिन्दु का काल अर्धमात्रा १/२ मात्रा का काल है। इस स्तर में प्रकृति का स्फुरण नहीं रहता केवल पुरुष तत्त्व ही अभिन्न रूप से स्फुरित होता है।
बिन्दु के बाद अर्धचन्द्र है। इसकी मात्रा १/४ है। यह बिन्दु के ऊपर स्थित है। तृतीय भूमिका रोधिनी है। इसकी कालमात्रा और अधिक सूक्ष्म अर्थात् १/८ है। इस रोधिका का भेदन साधारण योगी के वश का नहीं है। यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव नामक पञ्चकारण की भी शक्ति इस भूमिका में रुक जाती है। एकमात्र योगी ही इसका भेदन कर सकते हैं। रोधिनी के बाद नाद और नादान्त दो भूमियाँ हैं। नाद की मात्रा १/१६ और नादान्त की उसका आधा अर्थात् १/३२ मात्रा है। नाद का स्थान ब्रह्मरन्ध्र के मुख में है। यहाँ विशुद्ध निर्गुण शब्द का अनुभव होता है। नादान्त शून्य है। योगियों को जिन पाँच शून्यों का अनुभव होता है उनमें बिन्दु प्रथम शून्य है रोधिनी दूसरा शून्य। नादान्त तीसरा शून्य है। नादान्त के बाद शक्ति स्थान है। यह स्थान ब्रह्मरन्ध्र के ऊपर है। इसी को ऊर्ध्वकुण्डली कहते हैं। विश्व इसमें अनुन्मिषित रूप से पड़ा रहता है। पृथ्वीपर्यन्त सब तत्त्व और भुवन इसी शक्ति तत्त्व के प्रपञ्च हैं। इसकी मात्रा १/६४ है। इसमें आनन्दसत्ता का अनुभव होता है। इसके बाद व्यापिनी है। इसकी मात्रा १/१२८ है। व्यापिनी के अनन्तर समना का स्थान है। यही परा शक्ति है। इसी पर आरूढ़ होकर शिव समग्र विश्व की सृष्टि, रक्षा, संहार, निग्रह और अनुग्रह रूपी पाँच कार्यों का सम्पादन करते हैं। तान्त्रिक मत में महेश्वर कर्त्ता हैं और शक्ति कारण। समना की मात्रा १/२५६ है। समना के ऊपर उन्मना है। कुछ तान्त्रिक विद्वानों का विचार है कि उन्मना की मात्रा १/५१२ है। किन्तु अन्य तान्त्रिक कहते हैं कि उन्मना उच्चारणातीत है। इसका उच्चारण काल सम्भव नहीं है। शब्द ब्रह्म जो कि नादरूपी है, की यहीं समाप्ति होती है।
अब तक के विवरण का निष्कर्ष यह है कि स्थूलवर्ण का लघुतम उच्चारण काल एक मात्रा होता है। विश्व से समना पर्यन्त सूक्ष्म वर्णों का उच्चारण काल क्रमश: आधा होता जाता है। इस प्रकार बिन्दु का उच्चारण काल अर्ध मात्रा और इसी रीति से समना तक का उच्चारण काल १/२५६ मात्रा होता है। यह मन की सूक्ष्मतम मात्रा का उच्चारण है। मात्रा के और सूक्ष्म होने पर मन की क्रिया नहीं रह जाती इसलिये इसे उन्मना कहा जाता है।
उपर्युक्त वर्णन का अभिप्राय यह है कि योगी पूर्वोक्त रीति से विमर्श करता हुआ क्षण, घटिका, प्रहर, अहोरात्र, मास, वर्ष, युग, मन्वन्तर, कल्प और महाकल्प आदि को यौगिक भावना द्वारा व्याप्त कर लेता है। वह अपने एक-एक प्राणवाह में इन विशाल कालखण्डों का समावेश करता हुआ ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, श्रीकण्ठनाथ, अनन्तनाथ, रुद्र, ईश्वर, सदाशिव आदि तत्त्वेश्वरों के काल को दृढ़ भावना से व्याप्त कर लेता है। इस योग के सिद्ध हो जाने पर वह काल के संकोच अर्थात् इसकी सीमा से मुक्त हो जाता है। तत्पश्चात् वह अकाल अर्थात् परमेश्वर की परमेश्वरता से समाविष्ट होकर उसका अनुभव करने लगता है।
शरीर के अन्दर क्षण से लेकर समना पर्यन्त काल की सीमा का भेदन करने अथवा अनुभव करने के परिणामस्वरूप, पिण्डब्रह्माण्ड सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्ड के अथवा बाह्यजगत् के काल का भेदन अपने आप हो जाता है। यही कालाध्वा का संक्षिप्त परिचय है जिस पर चल कर योगी मोक्ष, शिवसमावेश या शिवसामरस्य प्राप्त करता है।

Tuesday, May 12, 2009

विवाह समारोह
रणत भवंर का लाडला, गणनायक गणराज / प्रथान निमंत्रण आपको, सकल सुधारो काज //

शुभ प्रसंग है गाते मंगल गीत
होगी जब तेल बान की रीत

मामाजी लायेंगे ममेरा मामी होगी साथ
तब मिल कर मनाएँगे हम चाक भात

झिलमिल करते आँगन में
फूलों से महके मधुबन के साथ
होंगे सभी मनमीत
जब होगा महिला संगीत

लाडली
इस घर की लाडली, उस घर की लाज, खिले यहाँ महके वहां, कैसे बना रिवाज/
बेटी बुल-बुल बाग़ की, बढ़ा न माली प्रीत, अपने घर उड़ जायगी, यही है जब की रीत//

Monday, May 11, 2009

Meditation

What is Meditation Therapy?
Meditation is an activity that calms the mind and keeps it focused on the present. In the meditative state, the mind is not cluttered with thoughts or memories of the past, nor is it concerned with future events.
Meditation Therapy is an effective healing tool. It relies on the body's ability to switch to an alpha (resting) or theta (relaxing) brain-wave state, inducing a trance or a dream-like state in order to treat disorders of mainly psychological or emotional origin. In this state, the brain's rhythm slows appreciably, and endorphins, the body's natural painkillers, are released. Studies have shown that during meditation the metabolism is lowered, resulting in a slower heart rate, decreased blood pressure, and slower breathing.
The meditative state, by itself, is useful for the relaxation it produces. Your mind is open and receptive to suggestions. Positive and healing suggestions are able to sink deeply into your mind much more quickly and strongly than when you are in a normal, awake state of mind. I say positive suggestions because you cannot be made to do anything against your moral values. Suggestions tend to be taken to heart, but only if those suggestions are acceptable to the person. You can never be forced into doing things against your will. You also can’t be forced into a meditative state either. Instead, you allow yourself to be. It is a voluntary altering of your own consciousness, and you are always in control.
All of our habitual and behavior controlling thoughts reside in what is called our subconscious mind. It's called that because it is deeper than our conscious mind, and is below our level of consciousness. We are normally unaware of the thoughts and feelings that reside there. Did you ever forget you had a doctor appointment or some other appointment that you really didn't want to keep? Your subconscious mind is where that thought or memory that you had to go to the dentist at 4 PM went when you forgot about it. Once it was too late to go, your conscious mind relaxed and the memory came back.
Meditation Therapy use is simply a way to focus your attention and concentration so you will go into that natural, relaxed state, where the trap door opens and suggestions to help you can be given.
To really work well, suggestions must be reinforced by repetition. Most of the habits, feelings, and emotions that we want to change are deeply implanted in our subconscious mind and will not just "go away" with one set of suggestions. Most of the time, suggestions need to be repeated on a regular basis until you notice a change. This is one reason that clients will receive cassette tapes of their sessions so they can listen to them every day. You get to listen to them every day or often enough that the suggestions become permanently a part of you. There is no way to predict how long it will take to see change. It will depend partly on your motivation and commitment.
A range of disordersMeditation Therapy is effective in treating a range of disorders, including:
Anxiety
Asthma
Chronic pain
Fears and phobias
Giving up smoking
High blood pressure
Insomnia
Panic attacks
Stress
How does it work?
Typically, relaxing the mind involves the use of imagery. For instance, you might be asked to imagine a peaceful scene. Being in a meditative state feels similar to the dreamy state of mind that exists just before falling asleep, except you are alert and aware of your surroundings. There are many ways to deliberately induce this altered state of consciousness
A meditative state can occur naturally and spontaneously, such as when you are absorbed in a pleasant task, or when day-dreaming. Meditation Therapy is the deliberate induction of an altered state of awareness. The brain has different levels of consciousness, or awareness, ranging from fully alert to drowsy to fully asleep, with variations in between. These different levels of consciousness can be mapped by brain wave activity, using a device called an electroencephalograph (EEG). When the brain is calm, it produces a distinctive EEG pattern called alpha waves. According to current theory, the subconscious mind is more accessible when the brain is producing alpha waves, because the conscious mind is relaxed. Therapeutic suggestions can then be given, usually to great effect.
In summary, there are four brainwave states that range from the high amplitude, low frequency delta to the low amplitude, high frequency beta. These brainwave states range from deep dreamless sleep to high arousal. The same four brainwave states are common to the human species. Men, women and children of all ages experience the same characteristic brainwaves.
There are four categories of these brainwaves, ranging from the most activity to the least activity. When the brain is aroused and actively engaged in mental activities, it generates beta waves. These beta waves are of relatively low amplitude, and are the fastest of the four different brainwaves. The frequency of beta waves ranges from 15 to 40 cycles a second. Beta waves are characteristics of a strongly engaged mind. A person in active conversation would be in beta. A debater would be in high beta. A person making a speech, or a teacher, or a talk show host would all be in beta when they are engaged in their work.
The next brainwave category in order of frequency is alpha. Where beta represented arousal, alpha represents non-arousal. Alpha brainwaves are slower and higher in amplitude. Their frequency ranges from 9 to 14 cycles per second. A person who has completed a task and sits down to rest is often in an alpha state. A person who takes time out to reflect or meditate is usually in an alpha state. A person who takes a break from a conference and walks in the garden is often in an alpha state.
The next state, theta brainwaves, is typically of even greater amplitude and slower frequency. This frequency range is normally between 5 and 8 cycles a second. A person who has taken time off from a task and begins to daydream is often in a theta brainwave state. A person who is driving on a freeway, and discovers that they can't recall the last five miles, is often in a theta state--induced by the process of freeway driving. The repetitious nature of that form of driving compared to a country road would differentiate a theta state and a beta state in order to perform the driving task safely.
Individuals who do a lot of freeway driving often get good ideas during those periods when they are in theta. Individuals who run outdoors often are in the state of mental relaxation that is slower than alpha and when in theta, they are prone to a flow of ideas. This can also occur in the shower or tub or even while shaving or brushing your hair. It is a state where tasks become so automatic that you can mentally disengage from them. The mental activity that can take place during the theta state is often free flow and occurs without censorship or guilt. It is typically a very positive mental state.
The final brainwave state is delta. Here the brainwaves are of the greatest amplitude and slowest frequency. They typically center on a range of 1.5 to 4 cycles per second. They never go down to zero because that would mean that you were brain dead. But, deep dreamless sleep would take you down to the lowest frequency. Typically, 2 to 3 cycles a second.
When we go to bed and read for a few minutes before attempting sleep, we are likely to be in low beta. When we put the book down, turn off the lights and close our eyes, our brainwaves will descend from beta, to alpha, to theta and finally, when we fall asleep, to delta.
Keys to successful use of Meditation Therapy
Use of mediation therapy for self improvement and personal growth are self motivation, repetition, and believable suggestions.
1. The motivation to change must come from within you. If you are trying to change because someone else wants you to "lose weight" or "stop smoking", the chances are greatly reduced that the therapy will work. These people do not respond as well to the therapy as those who really want to change. Those who want to quit smoking or lose weight will respond more quickly and easily. Before you start therapy for your self improvement, you should get it clear in your own mind why you want to change. This clear intention to change will help the positive suggestions to take hold and manifest themselves in your everyday life. 2. The next key to the successful use of meditation for personal change is believable suggestions. If you are to accept a suggestion, your mind must first accept it as a real possibility. Telling a chocoholic that chocolate will be disgusting to them and will make them sick is too big a stretch for the imagination. If a suggestion like this even took hold, it would only last a short time because it would be so unbelievable to a real chocolate lover. In cases like this, one of the successful weight loss suggestions I use is that the next time the individual eats chocolate it will not taste quite as good as the time before. This is far more acceptable and believable to most people. Then, with enough repetition over a period of time, chocolate loses much of its positive taste and control over that person.

Wednesday, April 22, 2009

नीम के गुण

विभिन्न रोगों में नीम का उपयोग
१. प्रसव एवं प्रसूता काल में नीम का उपयोग
१.१ नीम की जड़ को गर्भवती स्त्री के कमर में बांधने से बच्चा आसानी से पैदा हो जाता है। किन्तु बच्चा पैदा होते ही नीम की जड़ को कमर से खोलकर तुरन्त फेंक देने का सुझाव दिया जाता है। यह प्रयोग देश के कुछ ग्रामीण अंचलों में होते देखा गया है। परीक्षणों के बाद आयुर्वेद ने भी इसे मान्यता दी है।
१.२ प्रसूता को बच्चा जनने के दिन से ही नीम के पत्तों का रस कुछ दिन तक नियमित पिलाने से गर्भाशय संकोचन एवं रक्त की सफाई होती है, गर्भाशय और उसके आस-पास के अंगों का सूजन उतर जाता है, भूख लगती है, दस्त साफ होता है, ज्वर नहीं आता, यदि आता भी है तो उसका वेग अधिक नहीं होता। यह आयुर्वेद का मत है।
१.३ आयुर्वेद के मतानुसार प्रसव के छ: दिनों तक प्रसूता को प्यास लगने पर नीम के छाल का औटाया हुआ पानी देने से उसकी प्रकृति अच्छी रहती है। नीम के पत्ते या तने के भीतरी छाल को औंटकर गरम जल से प्रसूता स्त्री की योनि का प्रक्षालन करने से प्रसव के कारण होने वाला योनिशूल (दर्द) और सूजन नष्ट होता है। घाव जल्दी सूख जाता है तथा योनि शुद्ध तथा संकुचित होता है।
१.४ प्रसव होने पर प्रसूता के घर के दरवाजे पर नीम की पत्तियाँ तथा गोमूत्र रखने की ग्रामीण परम्परा मिलती है। ऐसा करने के पीछे मान्यता है कि घर के अन्दर दुष्ट आत्माएं अर्थात संक्रामक कीटाणुओं वाली हवा न प्रवेश करे। नीम पत्ती और गोमूत्र दोनों में रोगाणुरोधी (anti bacterial) गुण पाये जाते हैं। गुजरात के बड़ौदा में प्रसूता को नीम छाल का काढ़ा एवं नीम तेल पिलाया जाता है, इससे भी स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
२. मासिक धर्म, सुजाक एवं सहवास क्षत में नीम
२.१ आयुर्वेद मत में नीम की कोमल छाल ४ माशा तथा पुराना गुड २ तोला, डेढ़ पाव पानी में औंटकर, जब आधा पाव रह जाय तब छानकर स्त्रियों को पिलाने से रुका हुआ मासिक धर्म पुन: शुरू हो जाता है। एक अन्य वैद्य के अनुसार नीम छाल २ तोला सोंठ, ४ माशा एवं गुण २ तोला मिलाकर उसका काढ़ा बनाकर देने से मासिक धर्म की गड़बड़ी ठीक होती है।
२.२ स्त्री योनि में सुजाक (फुंसी, चकते) होने पर नीम के पत्तों के उबले गुनगुने जल से धोने से लाभ होता है। एक बड़े व चौड़े बर्तन में नीम पत्ती के उबले पर्याप्त जल में जो सुसुम हो, बैठने से सुजाक का शमन होता है और शान्ति मिलती है। पुरूष लिंग में भी सुजाक होने पर यही सुझाव दिया जाता है। इससे सूजन भी उतर जाता है और पेशाब ठीक होने लगता है।
२.३ नीम पत्ती को गरम कर स्त्री के कमर में बांधने से मासिक धर्म के समय होने वाला कष्ट या पुरूषप्रसंग के समय होने वाला दर्द नष्ट होता है।
२.४ नीम के पत्तों को पीस कर उसकी टिकिया तवे पर सेंककर पानी के साथ लेने से सहवास के समय स्त्री योनि के अन्दर या पुरूष लिंग में हुए क्षत भर जाते हैं, दर्द मिट जाता है।
३. प्रदर रोग (Leocorea) में नीम
३.१ प्रदर रोग मुख्यत: दो तरह के होते हैं-श्वेत एवं रक्त। जब योनि से सड़ी मछली के समान गन्ध जैसा, कच्चे अंडे की सफेदी के समान गाढ़ा पीला एवं चिपचिपा पदार्थ निकलता है, तब उसे श्वेत प्रदर कहा जाता है। यह रोग प्रजनन अंगों की नियमित सफाई न होने, संतुलित भोजन के अभाव, बेमेल विवाह, मानसिक तनाव, हारमोन की गड़बड़ी, शरीर से श्रम न करने, मधुमेह, रक्तदोष या चर्मरोग इत्यादि से होता है। इस रोग की अवस्था में जांघ के आस-पास जलन महसूस होता है, शौच नियमित नहीं होता, सिर भारी रहता है और कभी-कभी चक्कर भी आता है। रक्त प्रदर एक गंभीर रोग है। योनि मार्ग से अधिक मात्रा में रक्त का बहना इसका मुख्य लक्षण है। यह मासिक धर्म के साथ या बाद में भी होता है। इस रोग में हाथ-पैर में जलन, प्यास ज्यादा लगना, कमजोरी, मूर्च्छा तथा अधिक नींद आने की शिकायतें होती हैं।
३.२ श्वेत प्रदर में नीम की पत्तियों के क्वाथ से योनिद्वार को धोना और नीम छाल को जलाकर उसका धुआं लगाना लाभदायक माना गया है। दुर्गन्ध तथा चिपचिपापन दूर होने के साथ योनिद्वार शुद्ध एवं संकुचित होता है। यह आयुर्वेद ग्रंथ 'गण-निग्रह' का अभिमत है।
३.३ रक्त प्रदर में नीम के तने की भीतरी छाल का रस तथा जीरे का चूर्ण मिलाकर पीने से रक्तस्राव बन्द होता है तथा इस रोग की अन्य शिकायतें भी दूर होती हैं।
३.४ प्रदर रोग में (कफ होने पर) नीम का मद एवं गुडची का रस शराब के साथ लेने से लाभ होता है।
४. घाव, फोड़े-फुंसी, बदगांठ, घमौरी तथा नासूर में नीम
४.१ घाव एवं चर्मरोग बैक्टेरियाजनित रोग हैं और नीम का हर अंग अपने बैक्टेरियारोधी गुणों के कारण इस रोग के लिए सदियों से रामवाण औषधि के रूप में मान्यता प्राप्त है। घाव एवं चर्मरोग में नीम के समान आज भी विश्व के किसी भी चिकित्सा-पद्धति में दूसरी कोई प्रभावकारी औषधि नहीं है। इसे आज दुनियाँ के चिकित्सा वैज्ञानिक भी एकमत से स्वीकारने लगे हैं।
४.२ घाव चाहे छोटा हो या बड़ा नीम की पत्तियों के उबले जल से धोने, नीम पत्तियों को पीस कर उसपर छापने और नीम का पत्ता पीसकर पीने से शीघ्र लाभ होता है। फोड़े-फुंसी व बलतोड़ में भी नीम पत्तियाँ पीस कर छापी जाती हैं।
४.३ दुष्ट व न भरने वाले घाव को नीम पत्ते के उबले जल से धोने और उस पर नीम का तेल लगाने से वह जल्दी भर जाता है। नीम की पत्तियाँ भी पीसकर छापने से लाभ होता है।
४.४ गर्मी के दिनों में घमौरियाँ निकलने पर नीम पत्ते के उबले जल से नहाने पर लाभ होता है।
४.५ नीम की पत्तियों का रस, सरसों का तेल और पानी, इनको पकाकर लगाने से विषैले घाव भी ठीक हो जाते हैं।
४.६ नीम का मरहम लगाने से हर तरह के विकृत, विषैले एवं दुष्ट घाव भी ठीक होते हैं। इसे बनाने की विधि इस प्रकार है-नीम तेल एक पाव, मोम आधा पाव, नीम की हरी पत्तियों का रस एक सेर, नीम की जड़ के छाल का चूर्ण एक छटाक, नीम पत्तियों की राख ढाई तोला। एक कड़ाही में नीम तेल तथा पत्तियों का रस डालकर हल्की आँच पर पकावें। जब जलते-जलते एक छटाक रह जाय तब उसमें मोम डाल दें। गल जाने के बाद कड़ाही को चूल्हे पर से उतार कर और मिश्रण को कपड़े से छानकर गाज अलग कर दें। फिर नीम की छाल का चूर्ण और पत्तियों की राख उसमें बढ़िया से मिला दें। नीम का मरहम तैयार।
४.७ हमेशा बहते रहने वाले फोड़े पर नीम की छाल का भष्म लगाने से लाभ होता है।
४.८ छाँव में सूखी नीम की पत्ती और बुझे हुए चूने को नीम के हरे पत्ते के रस में घोटकर नासूर में भर देने से वह ठीक हो जाता है। जिस घाव में नासूर पड़ गया हो तथा उससे बराबर मवाद आता हो, तो उसमें नीम की पत्तियों का पुल्टिस बांधने से लाभ होता है।
५. उकतव (एक्जिमा), खुजली, दिनाय में नीम
५.१ रक्त की अशुद्धि तथा परोपजीवी (Parasitic) कीटाणुओं के प्रवेश से उकवत, खुजली, दाद-दिनाय जैसे चर्मरोग होते हैं। इसमें नीम का अधिकांश भाग उपयोगी है।
५.२ उकवत में शरीर के अंगों की चमड़ी कभी-कभी इतनी विकृत एवं विद्रूप हो जाती है कि एलोपैथी चिकित्सक उस अंग को काटने तक की भी सलाह दे देते हैं, किन्तु वैद्यों का अनुभव है कि ऐसे भयंकर चर्मरोग में भी नीम प्रभावकारी होता है। एक तोला मजिष्ठादि क्वाथ तथा नीम एवं पीपल की छाल एक-एक तोला तथा गिलोय का क्वाथ एक तोला मिलाकर प्रतिदिन एक महीने तक लगाने से एक्जिमा नष्ट होता है।
५.३ एक्जिमा में नीम का रस (जिसे मद भी कहते हैं) नियमित कुछ दिन तक लगाने और एक चम्मच रोज पीने से भी १०० प्रतिशत लाभ होता है। सासाराम (बिहार) के एक मरीज पर इसका लाभ होते प्रत्यक्ष देखा गया। खुजली और दिनाय में भी नीम का रस समान रूप से प्रभावकारी है।
५.४ कुटकी के काटने से होने वाली खुजली पर नीम की पत्ती और हल्दी ४:१ अनुपात में पीसकर छापने से खुजली में ९७ प्रतिशत तक लाभ पाया गया है। यह प्रयोग १५ दिन तक किया जाना चाहिए।
५.५ नीम के पत्तों को पीसकर दही में मिलाकर लगाने से भी दाद मिट जाता है।
५.६ वसंत ऋतु में दस दिन तक नीम की कोमल पत्ती तथा गोलमीर्च पीसकर खाली पेट पीने से साल भर तक कोई चर्मरोग नहीं होता, रक्त शुद्ध रहता है। रक्त विकार दूर करने में नीम के जड़ की छाल, नीम का मद एवं नीम फूल का अर्क भी काफी गुणकारी है। चर्मरोग में नीम तेल की मालिश करने तथा छाल का क्वाथ पीने की भी सलाह दी जाती है।
६. जले-कटे में नीम
६.१ आग से जले स्थान पर नीम का तेल लगाने अथवा नीम तेल में नीम पत्तों को पीस कर छापने से शान्ति मिलती है। नीम में प्रदाहक-रोधी (anti-inflammatory) गुण होने के कारण ऐसा होता है।
६.२ नीम की पत्ती को पानी में उबाल कर उसमें जले हुए अंग को डुबोने से भी शीघ्र राहत मिलती है।
६.३ नीम के तेल एवं पत्तियों में anticeptic गुण होते हैं। कटे स्थान पर इनका तेल लगाने से टिटनेस का भय नहीं होता।
७. कुष्ठरोग में नीम
७.१ दुनियाँ में २५ करोड़ से भी अधिक और भारत में पचासों लाख लोग कुष्ट रोग के शिकार हैं। सैकड़ों कोढ़ नियंत्रण चिकित्सा केन्द्रों के बावजूद इस रोग से पीड़ितों की संख्या में मामूली कमी आयी है। यह रोग एक छड़नुमा 'माइक्रोबैक्टेरिया लेबी' से होता है। चमड़ी एवं तंत्रिकाओं में इसका असर होता है। यह दो तरह का होता है-पेप्सी बेसीलरी, जो चमड़ी पर धब्बे के रूप में होता है, स्थान सुन्न हो जाता है। दूसरा मल्टीबेसीलरी, इसमें मुँह लाल, उंगलियाँ टेढ़ी-मेढ़ी तथा नाक चिपटी हो जाती है। नाक से खून आता है। दूसरा संक्रामक किस्म का रोग है। इसमें ''डैपसोन रिफैमिसीन'' और ''क्लोरोफाजीमिन'' नामक एलोपैथी दवा दी जाती है। लेकिन इसे नीम से भी ठीक किया जा सकता है।
७.२ प्राचीन आयुर्वेद का मत है कि कुष्ठरोगी को बारहों महीने नीम वृक्ष के नीचे रहने, नीम के खाट पर सोने, नीम का दातुन करने, प्रात:काल नित्य एक छटाक नीम की पत्तियों को पीस कर पीने, पूरे शरीर में नित्य नीम तेल की मालिश करने, भोजन के वक्त नित्य पाँच तोला नीम का मद पीने, शैय्या पर नीम की ताजी पत्तियाँ बिछाने, नीम पत्तियों का रस जल में मिलाकर स्नान करने तथा नीम तेल में नीम की पत्तियों की राख मिलाकर घाव पर लगाने से पुराना से पुराना कोढ़ भी नष्ट हो जाता है।
८. धवल रोग (Leucoderma) में नीम
८.१ शरीर के विभिन्न भागों में चकते के रूप में चमड़ी का सफेद हो जाना, फिर पूरे शरीर की चमड़ी का रंग बदल जाना, धवल रोग है। इसका स्वास्थ्य पर कोई असर नहीं पड़ता, इसके होने का कारण भी बहुत ज्ञात नहीं,किन्तु यूनानी चिकित्सा का मत है कि यह रक्त की खराबी, हाजमें की गड़बड़ी, कफ की अधिकता, पेट में कीड़ों के होने, असंयमित खान-पान, मानसिक तनाव, अधिक एंटीबायोटिक दवाइयों के सेवन आदि से होता है।
८.२ नीम की ताजी पत्ती के साथ बगुची का बीज (Psora corylifolia) तथा चना (Circerarietinum) पीसकर लगाने से यह रोग दूर होता है।
९. बवासीर
९.१ प्रतिदिन नीम की २१ पत्तियों को मूंग की भिंगोई और धोयी हुई दाल मे पीसकर बिना कोई मशाला डाले पकौड़ी बनाकर २१ दिन तक खाने से हर तरह का बवासीर निर्बल होकर गिर जाता है। पथ्य में सिर्फ ताजा मट्ठा, भात एवं सेंघा नमक लिया जाना चाहिए।
९.२ नीम बीज का पाउडर शहद में मिलाकर दिन में दो बार खाने से भी कुछ दिनों में बवासीर नष्ट हो जाते हैं। यह प्रयोग बुन्देलखण्ड के आदिवासियों द्वारा करते देखा गया है। इसमें नीम के टूसे बवासीर पर बांधने की सलाह दी जाती है।
१०. आँख की बीमारी में नीम
१०.१ नीम की हरी निबोली का दूध आँखों पर लगाने से रतौंधी दूर होती है। आँख में जलन या दर्द हो तो नीम की पत्ती कनपटी पर बांधने से आराम मिलता है। नीम के पत्ते का रस थोड़ा सुसुम कर जिस ओर आंख में दर्द हो, उसके दूसरी ओर कान में डालने से लाभ होता है। दोनों आँख में दर्द हो तो दोनों कान में सुसुम तेल डालना चाहिए।
१०.२ नीम के फूल छाँव में सुखाकर समान भाग कलमी शोरे के साथ पीसकर कपड़े से छानकर आँख में आँजन करने से फूली, धुंध, माडा, रतौंधी आदि दूर होते हैं, आँखों की ज्योति बढ़ती है।
१०.३ नीम की पत्तियों का रस तथा लाल फिटकिरी जल में मिलाकर उससे धोने से आँख का जाला साफ होता है तथा स्पष्ट दिखाई पड़ने लगता है।
१०.४ दु:खती आँख में नीम पत्तियों का रस शहद में मिलाकर लगाने से भी दर्द दूर होता है और साफ दिखाई पड़ता है। नीम की लकड़ी जलाकर उसकी राख का सूरमा भी लगाने से इसमें लाभ होता है।
१०.५ नीम की निबोली (फल) का रस, लोहे के किसी पात्र में रगड़कर और हल्का गर्म कर पलकों पर लेप करने से नेत्र का धुंधलापन दूर होता है।
१०.६ शुष्ठी और नीम के पत्तों को सेंधा नमक के साथ पीसकर नेत्र पलकों पर लगाने से सूजन, जलन, दर्द तथा आंखो का गड़ना समाप्त होता है।
१०.७ नीम की पत्तियों तथा लोधरा का पाउडर कपड़े में बांधकर पानी में कुछ देर छोड़ दें, फिर उस पानी से आँख धोने से नेत्र-विकार दूर होते हैं।
१०.८ नीम काजल : नीम की पीली सूखी पत्तियाँ ७ नग, नीम के सूखे फलों का चूर्ण एक माशा, नीम तेल एक तोला, साफ महीन कपड़ा ४ इंच। कपड़े पर नीम की सूखी पत्तियाँ तथा फलों का चूर्ण रखकर, हाथ से मसलकर तथा लपेटकर बत्ती बना लें। एक मिट्टी के दीपक में नीम का तेल डालकर उसमें बत्ती डूबो कर जला दें। जब बत्ती अच्छी तरह जलने लगे, तब उस पर एक ढकनी लगाकर काजल एकत्र कर लें। इसको आँखों में लगाने से हर प्रकार के नेत्र रोग दूर होते हैं और आँखों की ज्योति बढ़ती है। नीम के फूलों का भी काजल लगाने से लाभ होता है।
१०.९ नीम का तेल आँखों में आँजने और नीम का मद ६ तोला दो तीन दिन तक प्रात: पीने से भी रतौंधी दूर होती है। किन्तु मद को दो-तीन दिन से अधिक नहीं पीना चाहिए।
१०.१० नीम की पत्तियों का रस आँख में टपकाने से भी नेत्र के जलन व विकार नष्ट होते हैं।
११ कान रोग में नीम
११.१ नीम का तेल गर्म कर एवं थोड़ा ठंढ़ा कर कान में कुछ दिन तक नियमित डालने से बहरापन दूर होता है।
११.२ कान-दर्द या कान-बहने में नीम तेल कुछ दिन तक कान में नियमित डालने से ठीक होता है।
११.३ कान के घाव एवं उससे मवाद आने में नीम का रस (मद) शहद के साथ मिलाकर डालने या बत्ती भिंगोकर कान में रखने से मवाद निकलना बन्द होता है और घाव सूखता है।
१२. नाक तथा दाँत की बीमारी में नीम
१२.१ नीम की पत्तियाँ तथा अजवाइन दोनों पीसकर कनपट्टियों पर लेप करने से नकसीर बन्द होता है।
१२.२ मसूड़ों से खून आने और पायरिया होने पर नीम के तने की भीतरी छाल या पत्तों को पानी में औंटकर कुल्ला करने से लाभ होता है। इससे मसूड़े और दाँत मजबूत होते हैं। नीम के फूलों का काढ़ा बनाकर पीने से भी इसमें लाभ होता है।
१२.३ नीम का दातुन नित्य करने से दाँतों के अन्दर पाये जाने वाले कीटाणु नष्ट होते हैं। दाँत चमकीला एवं मसूड़े मजबूत व निरोग होते हैं। इससे चित्त प्रसन्न रहता है।
१३. बालों के जुंए, भूरापन तथा कील-मुहांसा में नीम
१३.१ पुराने समय में स्त्रियाँ नीम के तने का भीतरी छाल घिसकर चेहरे पर लगाती थीं, जिससे त्वचा कोमल तथा कील-मुहांसों से मुक्त होता था।
१३.२ बालों में नीम का तेल लगाने से जुएं तथा रूसी नष्ट होते हैं।
१३.३ नीम तेल नियमित सिर में लगाने से गंजापन या बाल का तेजी से झड़ना रूक जाता है। यह बालों को भूरा होने से भी बचाता है। नीम तेल से हेयर आयल तथा हेयर लोशन भी बनाये जाते हैं। मार्गो या नीम साबुन भी इसमें लाभप्रद है। किन्तु नीम तेल या उससे बने साबुन, तेल, लोशन आदि लगाने से माथे में गर्मी भी होती है, अत: बहुत जरूरी होने पर ही इनका प्रयोग करना चाहिए।
१४. पेट-कृमि में नीम
१४.१ आंत में पड़ने वाली सफेद कृमि या केचुए को जड़ से नष्ट करने में संभवत: नीम जैसा गुणकारी कोई अन्य औषधि नहीं है। नीम की पत्ती १५-२० नग तथा काली मिर्च १० नग थोड़े से नमक के साथ पीसकर एक गिलास जल में घोलकर खाली पेट ३-४ दिन तक पी लेने से इन कृमियों से कम से कम २-३ वर्ष तक के लिए मुक्ति मिल जाती है।
१४.२ बैगन या किसी दूसरे साग के साथ नीम की पत्तियों की छौंक लगाकर खाने से भी कृमि नष्ट होती है। सिर्फ नीम की पत्तियों का चूर्ण १०-१५ दिन खा लेने से भी लाभ होता है।
१४.३ एक अन्य मत के अनुसार दस ग्राम नीम के पत्ते, दस ग्राम शुद्ध हींग के साथ कुछ दिन नियमित सेवन करने से भी पेट के सभी प्रकार के कीड़े मर जाते हैं।
१५. मलेरिया में नीम
१५.१ नीम वृक्ष मलेरिया-रोधी के रूप में प्रसिद्ध है। इसकी छाया में रहने और इसकी हवा लेने वालों पर मलेरिया का प्रकोप नहीं होता, यह ग्रामीण अनुभव है। इस वृक्ष के आस-पास मलेरिया तथा अन्य संक्रामक बीमारियों के वायरस भी जल्दी नहीं आते। यह वायरस-विरोधी (anti Viral) वृक्ष है। अत: घर के आस-पास नीम वृक्ष लगाने और स्वच्छता रखने की सलाह दी जाती है।
१५.२ मलेरिया मुख्यत: मच्छरों के काटने से होता है। सर्दी, कंपकपाहट, तेज बुखार, बेहोशी, बुखार उतरने पर पसीना छूटना, इसके प्रमुख लक्षण हैं। इस रोग में नीम के तने की छाल का काढ़ा दिन में तीन बार पिलाने अथवा नीम के जड़ की अन्तर छाल एक छटाक ६० तोला पानी में १८ मिनट तक उबालकर और छानकर ज्वर चढ़ने से पहले २-३ बार पिलाना चाहिए। इससे ज्वर उतर जाता है।
१५.३ नीम तेल में नारियल या सरसो का तेल मिलाकर शरीर पर मालिश करने से भी मच्छरों के कारण उत्पन्न मलेरिया ज्वर उतर जाता है।
१६. सामान्य एवं विषम ज्वर में नीम
१६.१ नीम के अन्तर छाल का चूर्ण, सोंठ तथा मीर्च का काढ़ा विषम ज्वर में देने से लाभ होता है। इसमें नीम के तेल की मालिश करने तथा प्रमाण से रोगी को पिलाने से भी लाभ होता है। छाल की अपेक्षा तेल का प्रभाव जल्द होता बताया गया है। सूजनयुक्त ज्वर या उष्मज्वर में नीम का छाल अधिक उपयोगी पाया गया है। नीम पत्तों को पीस-छान कर भी रोगी को पिलाया जा सकता है। ये सारी औषधियाँ रोगी को कुछ खिलाने से पहले दी जानी चाहिए।
१६.२ मलेरियस ज्वर में नीम तेल की ५-१० बूंद दिन में दो बार देने से अच्छा लाभ होते देखा गया है। जीर्ण ज्वर में नीम का छाल एक तोला १० छटांक पानी में औंटकर, जब एक छटाक रह जाय तो छानकर प्रात: काल पिलाने से कुछ ही दिनों में अन्दर रहने वाला ज्वर विल्कुल निकल जाता है।
१६.३ तेज सिहरनयुक्त ज्वर के साथ कै होने पर नीम की पत्ती के रस शहद एवं गुड़ के साथ देने से लाभ होता है। नीम का पंचांग (पता, जड़ फूल, फल और छाल) को एक साथ कूटकर घी के साथ मिलाकर देने से भी लाभ होता है। यह सुश्रुत एवं काश्यप का मत है।
१६.४ साधारण बुखार में नीम की पत्तियाँ पीस कर दिन में तीन बार पानी में छानकर पिलाने से बुखार उतर जाता है। साधारण या विषम ज्वर में नीम के पत्तों की राख रोगी के शरीर पर मालिश करना लाभदायक होता है।
१७. चेचक में नीम
१७.१ इसकी भयंकरता के कारण इस रोग को दैवी प्रकोप माना जाता रहा है। यह जब उग्र रूप धारण करता है तब बड़े-बड़े चिकित्सकों की भी कुछ नहीं सुनता। आयुर्वेद में चेचक के रोकथाम के जो निदान बातये गये हैं उनमें नीम का उपयोग ही सर्वाधिक वर्णित है। इसके सेवन से या तो चेचक निकलता ही नहीं अथवा निकलता भी है तो उग्र नहीं होता, क्रमश: शान्त हो जाता है। नीम में चूंकि दाहकता शान्त करने के शीतल गुण हैं, इसलिए यह लोक जीवन में शीतला देवी के रूप में भी पूजित है।
१७.२ चेचक कभी निकले ही नहीं, इसके लिए आयुर्वेद मत में उपाय है कि चैत्र में दस दिन तक प्रात:काल नीम की कोमल पत्तियाँ गोल मिर्च के साथ पीस कर पीना चाहिए। नीम का बीज, बहेड़े का बीज और हल्दी समान भाग में लेकर पीस-छानकर कुछ दिन पीने से भी शीतला/चेचक का डर नहीं रह जाता।
१७.३ चेचक निकलने पर रोगी को स्वच्छ घर में नीम के पत्तों पर लिटाना, घर में नीम की ताजा पत्तियों की टहनी का बन्दनवार लटकाना तथा नीम का चंवर बनाकर रोगी को हवा देना चाहिए। बिस्तरे की पत्तियाँ नित्य बदल देनी चाहिए। रोगी को यदि अधिक जलन महसूस हो तो नीम की पत्तियों को पीसकर पानी में घोलकर तथा मथानी से मथकर उसका फेन चेचक के दानों पर सावधानी पूर्वक लगाना चाहिए। इससे भी राहत नहीं मिलने पर नीम की कोमल पत्तियाँ पीसकर चेचक के दानों पर हल्का लेप चढ़ाना चाहिए। नीम के बीज की गिरी को पीसकर भी लेप करने से दाहकता शीघ्र कम होती है। रोगी को प्यास लगने पर नीम के छाल को जलाकर उसके अंगारों को पानी में बुझाकर उस पानी को छान कर पिलाना चाहिए। नीम की पत्तियों को पानी में औंटकर पिलाने से भी दाहकता शान्त होती है। इससे चेचक का विष एवं ज्वर भी कम होता है, चेचक के दाने शीघ्र सूखते हैं। चेचक के दाने ठीक से न निकलने पर भी बेचैनी होती है। अत: नीम की पत्तियाँ पीस कर दिन में तीन बार पिलाने से वह शीघ्र निकल आते हैं। जब दाने सूख जांय तब नीम का पत्ता जल में उबालकर रोगी को कुछ दिन नियमित स्नान और नीम तेल की मालिश करनी चाहिए। इससे चेचक के दाग भी मिट जाते हैं। नीम बीज की गिरी पानी में गाढ़ा पीस कर दाग पर लगाना भी फायदेमंद होता है। चेचक होने पर कई रोगियों के कुछ बाल भी झड़ जाते हैं। इसमें नीम तेल माथे पर लगाने से बाल पुन: उग आते हैं।
१७.४ चेचक में भूलकर भी नीम के अलावे कोई दूसरा इलाज करना बैद्यों ने मना किया है।
१८. प्लेग में नीम
१८.१ वायरस कीटाणुओं से होने वाला यह एक संक्रामक बीमारी है। मिट्टी, जल और वायु के प्रदूषण से इसके कीटाणु (पिप्सू) संक्रमित होते हैं, जो पहले चूहों में लगते हैं, फिर चूहों से मिट्टी, खाद्य पदार्थ, जल एवं वायु के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश करते हैं। तेज बुखार, साँस लेने में कठिनाई, खून की उल्टियाँ, आँत में दर्द, बगल तथा गले में सूजन अथवा गांठे पड़ जाना इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं। आयुर्वेद में इसे ग्रन्थिक या वातलिकार ज्वर कहा जाता है। यह बहुत तेजी से फैलता है। इसके वायरस शरीर की कोशिकाओं को नष्ट कर व्यक्ति को अपनी चपेट में तुरन्त ले लेते हैं।
१८.२ प्लेग फैलते ही स्वस्थ लोगों को नीम के पत्ते पीस कर नित्य पीते रहना चाहिए, इससे प्लेग का उनपर असर नही होता। प्लेग के शिकार रोगी को नीम का पंचाग (बीज, छाल, पत्ता, फूल, गोद) कूटकर पानी मे छानकर दस-दस तोले की मात्रा हर पन्द्रह मिनट पर देनी चाहिए। तत्काल नीम के पांचों अंग न मिले तो जो भी मिले उसी को देना चाहिए।
१८.३ शरीर के जोड़ों पर नीम की पत्तियों की पुल्टिस बांधने तथा आस-पास नीम की लकड़ी-पत्तों की घूनी करने से भी प्लेग का शमन होता है।
१९. हैजा में नीम
१९.१ यह अशुद्ध/दूषित जल के उपयोग से फैलने वाला संक्रामक रोग है। इसकी अभी कोई कारगार दवा इजाद नहीं हुई है। इसके जीवाणु पहले आंत में प्रतिक्रिया करते हैं। तत्काल उपाय न होने पर देखते-देखते रोगी मर जाता है। ग्लूकोज या नमक चीनी का घोल तुरन्त दिया जाना लाभदायक होता है। इसके फैलने पर व्यक्ति को पानी उबालकर पीना चाहिए, मांस-मंछली वर्जित करना चाहिए, खुले स्थान के मल को मिट्टी से ढक देना या लैट्रिन की विधिवत सफाई होती रहनी चाहिए। हैजा 'विब्रियो कैलेरा' नामक जीवाणु से संक्रमित होता है। कूड़े-कचड़ों के सड़न में इनका निवास अधिक होता है। इस बैक्टेरिया से ग्रस्त व्यक्ति अपने मल द्वारा हैजे के करोड़ों जीवाणु वातावरण में छोड़ता है, उससे जल, मिट्टी, खाद्य पदार्थ तथा वायु संक्रमित होते हैं। मक्खियाँ भी इसके संवाहक बनती हैं। उल्टी-दस्त, हाथ-पांव में ऐठन और तेज प्यास इसके प्रमुख लक्षण हैं।
१९.२ नीम के पत्तों को पीसकर, गोला बनाकर तथा कपड़े में बांधकर ऊपर सनी हुई मिट्टी का मोटा लेप चढ़ाकर उसे आग के धूमल (भभूत) में पकाना चाहिए, जब वह लाल हो जाय तब थोड़ी-थोड़ी देर पर उस पके हुए गोले को अर्क गुलाब के साथ रोगी को देने से दस्त, वमन एवं प्यास रूकता है। नीम तेल की मालिश से शरीर का ऐंठन कम होता है। हैजे में नीम तेल पानी के साथ पीने से भी लाभ होता है। नीम छाल का काढ़ा पतले दस्त में भी लाभकारी होता है।
२०. पिलिया/जौंडिस में नीम
२०.१ नीम का रस (मद) या छाल का क्वाथ शहद में मिलाकर नित्य सुबह लेने से पिलिया में लाभ होता है। मोथा और कियू (Costus speciosus) के जूस में नीम का छाल मिलाकर उसका क्वाथ देने से भी यह रोग नष्ट होता है।
२१. मधुमेह/डायबिटीज में नीम
२१.१ हार्मोन की कमी के कारण रक्त में शर्करा की अधिकता और बार-बार पेशाब लगना, अधिक प्यास, कमजोरी, पैरो में झुनझुनी तथा बेहोशी भी इंसुलिन आधारित मधुमेह के प्रमुख लक्षण हैं। व्यायाम की कमी तथा आहार में प्रोटीन के अभाव से भी मधुमेह होता है, जिसका आधार इंसुलिन नहीं होता। इसमें घबराहट, नसों में दर्द, कमजोरी, थकान, शरीर का सूखना, वजन घटना, अधिक भूख, प्यास और पेशाब का लगना, कभी-कभी अंधापन भी इस रोग के लक्षण हैं।
२१.२ नीम के तने की भीतरी छाल तथा मेथी के चूर्ण का काढ़ा बनाकर कुछ दिनों तक नियमित पीने से मधुमेह की हर स्थिति में लाभ मिलता है।
२२. गठिया, बातरोग, साइटिका, जोड़ों में दर्द (अर्थराइटीस) में नीम
२२.१ इन रोगों में नीम तेल की मालिश, नीम की पत्तियों को पीसकर एवं गर्म कर जोड़ों पर छापने, नीम का मद पीने, नीम के सूखे बीज का चूर्ण हर तीसरे दिन महीने भर खाने से काफी लाभ मिलता है। नीम के छाल को पानी के साथ पीस कर जोड़ों के दर्द वाले स्थान पर गाढ़ा लेप करने से भी दर्द दूर होता है।
२३. सूजन, लकवा, चोट-मोच में नीम
२३.१ नीम के छाल का अर्क २ से ४ तोले तक नित्य पीने और इसके सेवन के २ घंटे बाद तत्काल बनी रोटी घी के साथ खाने से लकवा अर्द्धांश में लाभ होता है। पक्षाघात वाले अंगों पर नीम तेल की मालिश करने की भी सलाह दी जाती है।
२३.२ चोट लगने के कारण आयी मोच और गिल्टियों के सूजन पर नीम की पत्तियों का बफारा देने से लाभ होता है।
२४. कफ, पित्त, दमा, रक्त एवं हृदय विकार तथा पथरी में नीम
२४.१ नीम तथा वक के छाल का काढ़ा कफ में लाभदायक होता है।
२४.२ नीम का फूल, इमली तथा शहद के साथ खाने से कफ एवं पित्त दोनों का शमन होता है।
२४.३ नीम का शुद्ध तेल ३० से ६० बूंद तक पान में रखकर खाने से दमा से छुटकारा मिलता है। नीम के २० ग्राम पत्ते को आधा लीटर पानी में उबालकर जब एक कप रह जाय, कुछ दिन पीते रहने से भी दमा जड़ से नष्ट होता है।
२४.४ नीम का मद, नीम के जड़ की छाल, नीम की कोमल पत्तियाँ अथवा पंचांग (पत्ते, जड़, फूल, फल एवं छाल) का काढ़ा इनमें से किसी का भी सेवन करने से रक्त-विकार दूर होता है। पित्त का भी शमन होता है और हृदय रोग की भी आशंका नहीं होती है।
२४.५ नीम का गोंद रक्त की गति बढ़ाने वाला, स्फूर्तिदायक पदार्थ है। नीम के जड़ की छाल का काढ़ा त्रिदोषों - कफ, वात, पित्त का शमन करता है।
२४.६ नीम की पत्तियों की राख २ माशा जल के साथ नियमित कुछ दिन तक खाते रहने से पथरी गलकर नष्ट हो जाती है।
२५. मन्दाग्नि, वायुरोग, पशु-हाजमा में नीम
२५.१ नीम की पकी निबोली अथवा नीम का फूल कुछ दिन नित्य खाने से मंदाग्नि में काफी लाभ होता है।
२५.२ नीम तेल ३० बूंद पान के साथ खाने से वायु विकार तथा पेट का मरोड़ दूर होता है।
२५.३ पशु हाजमा में नीम की पत्तियाँ गुड़ तथा नमक के साथ कूटकर खिलाने से लाभ होता है। इससे आंत के कीड़े भी मरते हैं।
२६. वमन, विरेचन तथा नशा एवं विष उतारने में नीम
२६.१ नीम बीज जल के साथ खिलाने पर वमन होता है। यह मृदु विरेचक है।
२६.२ कई वर्षों तक लगातार हर साल १०-१५ दिन तक नीम की पत्तियों का सेवन किये हुए व्यक्ति को सर्प, बिच्छू आदि के विष का असर नहीं होता। नीम बीज का चूर्ण गर्म पानी के साथ पीने से भी विष उतरता है।
२६.३ हड्डी, बिच्छू तथा मधुमक्खी के काटने पर नीम की पत्तियों को पीसकर छापनी चाहिए। इसको पीने से संखिया का विष भी उतर जाता है। नीम पत्तों का तेज अर्क अफीम के विष का नाशक है। कच्ची या पक्की निबोली गर्म पानी से पिलाने पर उल्टी होती है, इससे विष का असर नष्ट होता है।
२७. लू से बचाव में नीम
२७.१ नीम के पंचांग (पत्ता, जड़, फूल, फल एवं छाल) तथा मिश्री एक-एक तोला पानी के साथ पीसकर पीने से लू का प्रभाव नष्ट होता है। नीम की पत्ती पीसकर नीम के रस के साथ माथे पर छापने से भी लू का असर कम होता है।
२७.२ चैत्र में दस दिन तक नीम की कोमल पत्ती एवं काली मिर्च पीने वाले व्यक्ति को गर्मी में लू नहीं लगती, शरीर में ढंठक बनी रहती है, कोई फोड़ा-फूंसी, चर्मरोग भी नहीं होता।
२८. एड्स रोग में नीम
२८.१ अभी कुछ ही वर्ष पहले नीम से असाध्य रोग एड्स के वायरस (एच.आई.वी.) प्रतिरोधी कुछ एनजाइम्स की खोज की गई है। भविष्य में नीम से बने एड्स विरोधी टीके आने वाले हैं। नीम छाल से एक ऐसा रसायन तैयार किया गया है जो एड्स को रोकने में काफी प्रभावकारी सिद्ध हुआ है।
२९. अरूचिनाश तथा शुद्धिकरण में नीम
२९.१ नीम की कोमल पत्तियाँ घी में भूनकर खाने से भयंकर अरूचि भी नष्ट होती है।
२९.२ पुराने देशी घी या तेल को शुद्ध करने के लिए गर्म करते समय नीम की पत्तियाँ डाली जाती हैं।
२९.३ अधिक नीम के सेवन से उत्पन्न हुए विकार दूध या सेंधा नमक खाने से दूर होते हैं।
२९.४ नीम की पत्तियों से उबला जल या नीम तेल पानी में मिलाकर फर्श धोने से वातावरण शुद्ध होता है।
२९.५ शवदाह के बाद लौटने या कोई घृणित चीज देखने से उत्पन्न हुए चित्त विकार नीम की पत्तियाँ/टूसे चबाने से दूर होते हैं।
३०. अतिसार, पेचीस में नीम
३०.१ मेघालय की खासी और जैतिया आदिवासी नीम की पत्ती अतिसार (दस्त), पेचिस, क्षयरोग (यक्ष्मा, तपेदिक) और हृदय रोग में व्यवहार करते हैं।
३१. कुपोषण में नीम
नीम विटामिन 'ए' का एक समृद्ध स्रोत है। विटामिन 'ए' की कमी से भी रतौंधी के अलावे फोड़े-फुंसी, खुजली, दाद, चमड़ी का खुरदुरा हो जाना या सिकुड़ जाना, हाथ-पाँव, कन्धं तथा जाँघों में फुंसियाँ निकल आना, जुकाम, खाँसी, निमोनिया, स्वाँस की बीमारी, पाचन सम्बन्धी रोग आदि होते हैं। इन कुपोषण-जनित रोगों में नीम का विभिन्न रूपों में उपयोग किया जाता है।
३२. कैलेस्ट्रोल नियंत्रण में नीम
कैलेस्ट्रोल रक्त में पाया जाने वाला पीले रंग का एक मोमी पदार्थ है। जब रक्त में यह अधिक हो जाता है, तब रक्त-वाहिनी धमनियों के अन्दर यह जमने लगता है, थक्का बनाकर रक्त-प्रवाह को अवरुद्ध करता है। कैलेस्ट्रोल दो तरह के होते हैं- एच.डी.एल. और एल.डी.एल.। इसमें पहला स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, दूसरा बुरा। बुरा कैलेस्ट्रोल अधिक वसायुक्त पदार्थ (तेल, घी, डालडा), माँस, सिगरेट तथा अन्य नशीले पदार्थों के सेवन से पैदा होता है। बुरा कैलेस्ट्रोल की वृद्धि से रक्त दूषित होता है, उसका प्रवाह रुकता है और हार्ट अटैक का दौरा पड़ता है। नीम एक रक्त-शोधक औषधि है, यह बुरे कैलेस्ट्रोल को कम या नष्ट करता है। नीम का महीने में १० दिन तक सेवन करते रहने से हार्ट अटैक की बीमारी दूर हो सकती है। कोयम्बटूर के एक आयुर्वेदीय अनुसंधान संस्थान में पशुओं पर प्रयोग करके देखा गया कि २०० ग्राम तक नीम पत्तियों के प्रयोग से कैलेस्ट्रोल की मात्रा काफी कम हो जाती है। लीवर की बीमारी में भी नीम पत्ती का सेवन लाभदायक पाया गया है।
३३. नीम के अधिक सेवन से नपुंसकता
३३.१ एक स्वस्थ व्यक्ति को अनावश्यक रूप से नीम का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए, इससे नपुंसकता आती है। बहुत से साधु-संत प्रबल कामशक्ति को जीतने के लिए बारहो मास नीम का सेवन करते हैं। प्रात:काल उषापान करने वाले स्वस्थ व्यक्ति को नीम का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए। नीम का दातुन इसमें अपवाद है।

Thursday, April 9, 2009

चमत्कार : कुण्डलिनी शक्ति जागरण

CHAKRAS: THE SOURCE OF ENERGY


MULADHARA CHAKRA (1) :(near the last spine of the spinl chord)Whoever practices Meditation on this Muladhara Chakra in the presence of his spiritual teacher very easily acquires all powers. He will become the master of Animadic powers and he will be worshipped by even Gods. He can go anywhere in the three worlds wherever he wants. He always merges himself in the Atman playfully, just by hearing noble worlds (Mahavakyas). The wise man who always contemplates on this Muladhara obtains Darduri Siddhi - the frog jump power and by degrees he can rise in the air. The brilliancy of his body will be increased, his gastric fire becomes powerful and freedom from disease, cleverness, and omniscience ensue. He knows the past, present and the future with their causes. He masters the unheard of sciences together with their mysteries. On his tongue always dances the Goddess of Learning and he can comment upon any scriptures without even hearing them. Wonderful powers of mind will come into him. Whatever he thinks, that will happen.All sins will be burnt for a yogi, one who meditates on Svayambhu linga who sits on a lotus of their Muladhara Chakra. Whatever things he thinks in his mind, all those things will come unto him.One who meditates on External form forgetting this internal Siva is like one who goes for flowers outside throwing the flowers which are in his hands. Therefore, wise people should meditate on this Siva who is within, without wasting time. This meditation itself is great worship, great austerity, great human goal. One gets success in 6 months of practice and undoubtedly his Vayu enters the middle channel (the susumna). He conquers the mind and gets peace and gets success in this as well as the other world without doubt.SWADHISTHANA CHAKRA (2):(under the navel) He who contemplates on the Swadhisthana Chakra becomes an object of love and adoration for all beautiful Goddesses. He recites various sastras and sciences unknown to him before: becomes free from diseases, and moves throughout the world fearlessly. Death is eaten by him, he is eaten by none. He obtains the highest psychic powers like Anima and Laghima, etc. The vayu moves equally throughout his body and enters into Susumna Nadi: the humors of his body also are increased. The ambrosia exceeding from the thousand petalled lotus also increases in him.MANIPURA CHAKRA (3):(behind the navel)When the yogi contemplates on the manipura lotus, he gets the power called patala-siddhi - the giver of constant happiness. He becomes lord of desires, destroys sorrows and diseases, all his wishes will be fulfilled. He can escape from the grip of Time i.e. he will conquer the Time. Sage Kakbhusundi and Yogi Changdevji escaped from he spell of time and lived up to 1400 years. We can find many examples like this in scriptures. Yogi, who meditates on this chakra can enter the body of another, he will get that power. He can make gold and see hidden treasures of devas, discover medicines for diseases.ANAHATA CHAKRA (4):(near the heart)One who meditates on this lotus of the heart is eagerly desired by celestial maidens. He gets immeasurable knowledge, knows the past, present and future: has clairaudience, clairvoyance, and he can walk in the air whenever he likes. He sees the adepts and the goddesses known as yoginis: obtain power known as Bhucari - going at will all over the world. We cannot describe fully the benefits which we can have buy contemplating on this Chakra. Even Brahma etc, Gods keep this as a secret.VISUDDHA CHAKRA (5):(near the throat) By meditation of this Visuddha lotus the yogi at once understands the four vedas with their mysteries. When the yogi, fixing his mind on this secret spot, feels angrey, then undoubtedly all the three worlds begin to tremble. Even if by chance the mind of the yogi is absorbed in this place, then he becomes unconscious of the external world and enjoys certainly the inner world. He becomes harder than adamant.AJNA CHAKRA (6) :(between the eyebrows)He who contemplates on this lotus at once destroys all the karmas of his past lives. He will conquer all the heavenly gods, yakshas, rakshasas, gandharvas, apsaras, kinnaras (heavenly Gods). When one meditates on this Chakra, one should keep his stomach upwards. It will destroy all sins. He will get all the benefits of all chakras by just meditating on this chakra. He will be free from his past tendencies. He is fit to be a Raj-yogi.SAHASRARA CHAKRA (7) (top of the head)One who meditates on the Brahmarandra situated in this thousand petalled lotus enter into the eternal beatitude and gets liberation. * Om.. Peace.. Peace.. Peace.. *


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It is good to have dinner before sunset. The digestive system’s functioning becomes weak as time passes after sunset. One should avoid eating beyond 2 hrs after sunset. One should not eat, sleep or indulge in any worldly pleasures at the time of Sandhya (i.e. between 10 min. before & 10 min. after sunrise, sunset or noon). One who does meditation, pranayam & japa at this time need not ever worry for his bread & butter.

Monday, March 23, 2009

सब से बड़े टैक्स चोर

भारतीय टैक्स चोरों के स्विस खाते आखिर कब खुलेंगे16 Mar 2009, 0945 hrs IST,नवभारत टाइम्स
चंद्रभूषण इमर्जंसी के ठीक बाद भारतीय राजनेताओं के स्विस खातों का हल्ला पहली बार सुनने को मिला
था। 1977 के आम चुनाव में कांग्रेसी और गैरकांग्रेसी -दोनों ही खेमों ने एक-दूसरे के खिलाफ देश से धन लूट कर स्विट्जरलैंड के गुमनाम बैंक खातों में जमा कर देने के आरोप लगाए थे। इसके दस साल बाद बोफोर्स कांड के हल्ले में स्विस खातों के अलावा सेंट किट्स, बेलीज और केमैन आइलैंड जैसे बेनामी खातों के कई अन्य केंद्र भी चर्चा में आए थे। लेकिन दोनों बार यह हल्ला सिर्फ चुनावी अभियानों तक ही सिमट कर रह गया और विदेशों में जमा भारत का पैसा देश में लौटाने का कोई सार्थक प्रयास आज तक नहीं किया जा सका। मंदी के इस माहौल में स्विट्जरलैंड ही नहीं, टैक्स चोरी के सारे अड्डे बुरी तरह दबाव में हैं और उनमें दबा भारत का पैसा निकलवाने का यह बहुत अच्छा मौका है। बीते शुक्रवार को टैक्स हेवन के नाम से मशहूर सिंगापुर, हॉन्गकॉन्ग, ऑस्ट्रिया, लक्जमबर्ग, लीख्टेंस्टाइन, अंडोरा, जर्सी और आइजल ऑफ मैन ने एक साथ घोषणा की कि वे दुनिया में कहीं भी टैक्स चोरी से जुड़े मामलों में अपना पूरा सहयोग देंगे।
स्विट्जरलैंड ने ठीक-ठीक यह तो नहीं कहा लेकिन टैक्स फ्रॉड और टैक्स इवेजन के बीच के जिस महीन कानूनी फर्क का आधार बनाकर वह अपने यहां मौजूद खातों की जांच को धता बताता रहा है, उसे खत्म करने की बात उसने जरूर कही है। फिलहाल तीन वजहें ऐसी हैं, जिन्हें आधार बनाते हुए बेनामी खातों के खुलासे को आम चुनाव का केंद्रीय मुद्दा बनाया जाना चाहिए। इनमें एक तो खुद चुनाव ही है, जिसे ऐसे मुद्दे उठाने के लिए अच्छा मौसम माना जाता रहा है। देश के लगभग सारे राजनीतिक दल पिछले कुछ वर्षों में किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर चुके हैं, लिहाजा बेहतर यही होगा कि इस मुद्दे को उठाने की पहल राजनीतिक दायरे के बाहर से हो। दूसरी वजह की शुरुआत सबसे बड़े स्विस बैंक यूबीएस से हुई है, जिसे अपने यहां मौजूद अमेरिका के लगभग 300 बेनामी खातों का पिछले महीने खुलासा करना पड़ा। स्विट्जरलैंड के सारे राजनेता और बैंकर एकजुट होकर इस सिलसिले को यहीं खत्म कर देना चाहते हैं लेकिन अमेरिका की मांग अपने यहां टैक्स चोरी से जुड़े कुल ढाई लाख खातों के खुलासे की है और कई यूरोपीय देश भी इस मामले में आर या पार की मुदा में हैं। ऐसे में अगर किसी तरह भारत सरकार को भी इसके लिए मजबूर किया जा सके, तो कुछ नतीजा निकलने की उम्मीद की जा सकती है। तीसरी वजह कहीं ज्यादा जटिल और भयानक है और इसका नाता भविष्य से जुड़ा है। भारतीय अर्थव्यवस्था में 2003 से 2008 की शुरुआत तक लगातार नजर आई तेजी के पीछे एक बड़ा कारण विदेशों में बेनामी तौर पर जमा बेशुमार भारतीय पैसों का आड़े-तिरछे तरीकों से देश में वापस आना है। स्विस बैंकों से निकल कर एनआरआई और एफआईआई जुगाड़ों के जरिए भारत लौटी इस पूंजी ने पांच साल तक यहां अपार मुनाफा कमाया, लेकिन पिछले सवा साल से आम निवेशकों का पैसा समेट कर यह बड़ी तेजी से अपने विदेशी घोसलों में वापस जा रही है। भांडा फूट जाने का खौफ अगर इसके भीतर नहीं पैदा किया गया, तो इस गाढ़े वक्त में देश को अपनी ही बहुत बड़ी संपदा का कोई लाभ नहीं मिल सकेगा। भारत का कितना पैसा स्विस बैंकों में जमा है, इस बारे में इंटरनेट पर मौजूद एक आंकड़ा 1500 अरब डॉलर यानी करीब 80 लाख करोड़ रुपये का है, जो इनमें जमा दुनिया भर की रकम का 37.50 प्रतिशत है। इस तथ्य की आधिकारिक पुष्टि नहीं की जा सकती, क्योंकि स्विस बैंक अपने खाताधारकों के बारे में कोई भी सूचना प्रकाशित नहीं करते। लेकिन भारतीय कानूनों में मौजूद झोल को देखते हुए यह राशि अतार्किक नहीं जान पड़ती। किसी स्विस बैंक की गैर-स्विस ब्रांच में धन जमा करने पर खाताधारी को गोपनीयता की कोई सुविधा नहीं मिलती, क्योंकि उस शाखा को संबंधित देश के कानून के मुताबिक चलना होता है। किसी खाताधारी को अगर नंबर्ड अकाउंट की चरम गोपनीयता का लाभ उठाना है तो उसे न सिर्फ अपना खाता खुद स्विट्जरलैंड जाकर खोलना होता है, बल्कि हर बार नई रकम जमा करने के लिए भी उसका निजी तौर पर वहां उपस्थित होना जरूरी है। भारत से औसतन 50 हजार लोग हर साल स्विट्जरलैंड जाते हैं, जिनमें 25 हजार का नाम वहां अक्सर आने-जाने वालों के रूप में दर्ज है। सरकार अगर चाहे तो अपनी जांच की शुरुआत पिछले पांच-छह वर्षों की हवाई यात्राओं के रेकॉर्ड निकाल कर स्विट्जरलैंड के फ्रीक्वेंट फ्लायर्स पर नजरदारी के जरिए कर सकती है। स्विट्जरलैंड में बैंक खातों की गोपनीयता सन 1713 से विधिवत शुरू हो गई थी। फ्रांसीसी अमीर स्विस बैंकरों के पास अपना पैसा रखना सबसे ज्यादा सुरक्षित मानते थे। प्रथम विश्वयुद्ध में यूरोप की सारी मुद्राएं ढह जाने के बाद अपनी तटस्थता की वजह से स्विट्जरलैंड दुनिया के बैंकिंग सेंटर के रूप में उभरा। 1931 में जर्मनी की नाजी सरकार ने जब जर्मनों के लिए विदेशी खाता रखना दंडनीय अपराध बना दिया और 1932 में फ्रांस की वामपंथी सरकार ने भी स्विस बैंकरों पर सभी फ्रांसीसी खातों का खुलासा करने का दबाव डाला तो 1934 में स्विट्जरलैंड ने अपने यहां बाकायदा कानून बना कर किसी भी खाते की गोपनीयता भंग करने को आपराधिक कृत्य का दर्जा दे दिया। तब से लेकर 18 फरवरी 2009 तक किसी स्विस बैंक के खाते में गई रकम के बारे में कोई जानकारी जुटाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। स्विट्जरलैंड में 1934 का 'बैंकिंग गोपनीयता कानून' महामंदी के ठीक बाद के दबावों से निपटने के लिए बना था और स्विस बैंकों के सामने यह कानून तोड़ने की मजबूरी अब आई है, जब दुनिया एक बार फिर कमोबेश वैसी ही मंदी का सामना कर रही है। छंटनी और तालाबंदी का सिलसिला जब लाखों लोगों की रोजी-रोटी छीन रहा हो तो कोई देश अपने भ्रष्ट अमीरों को अरबों-खरबों की रकम कहीं और छुपाने की इजाजत कैसे दे सकता है? अमेरिका जैसा धनी देश अगर इस लूट को रोकने की शुरुआत कर सकता है तो भारत जैसे गरीब देश का तो इसके लिए किसी भी हद तक जाना वाजिब है। इस मुद्दे को अगली सरकार के अजेंडे पर लाने का मौका यही है, बशर्ते चुनावी हवा-पानी में यह उनसे बिसर ही न जाए।

सोर्स: नवभारत टाईम्स

Saturday, February 28, 2009

स्वयम को पहचानो



Open to awareness
"Mindfulness means moment-to-moment, non-judgmental awareness. It is cultivated by refining our capacity to pay attention, intentionally, in the present moment, and then sustaining that attention over time as best we can. In the process, we become more in touch with our life as it is unfolding."
-- Myla & Jon Kabat-Zinn
Why do we want to become more aware?
If we remain unaware, we:- repeat the past, - remain stuck in relationships,- live superficial, literal and one dimensional lives,- lack experiences of love and beauty, and- have limited connection to others and the universe.
With awareness, we are fully involved with life. Awareness is sensing deeply and sensitively for what really is. To do this, we need to approach the present as totally new. When we can be open and attentive in each moment, we begin to free ourselves from the conditioning of the past and the suffering that it so often brings.
"If moment by moment you can keep your mind clear then nothing will confuse you."
-- Sheng Yen
Awareness is the key to all change। Develop self trust. Uncover new dimensions of who you are. Find your power in the immediate moment.