Tuesday, August 25, 2009
धर्म केवल आचरण है
श्री आनंदमूर्ति धर्म व्यावहारिक है , वह सैद्धांतिक नहीं है। कौन धार्मिक है, कौन नहीं -यह उसकी विद्या, बुद्धि, पद या मर्यादा से प्रमाणित नहीं होता है। धार्मिकता प्रमाणित होती है आचरण से। जिन्हें धार्मिक बनना है, उन्हें अपना आचरण ही सुधारना होता है। पोथी पढ़कर कोई विद्वान नहीं हो सकता है। लोग कहते हैं कि तब विद्या क्या है? 'सा विद्या या विमुक्तये।' विद्या वही है जिससे मुक्ति मिलती है। तब मुक्ति क्या है? मुक्ति है बंधन से छुटकारा। किंतु एक बंधन से छुटकारा मिल जाए, तो दोबारा भी तो बंधन हो सकता है। फिर क्या होगा? इसलिए एक बार बंधन से ऐसा छुटकारा हो जाए कि दोबारा बंधन की संभावना ही नहीं रहे, तो वह जो विशेष प्रकार की मुक्ति हुई -इसी को विमुक्ति कहते हैं। जिसके द्वारा विमुक्ति मिलती है, उसी को विद्या कहते हैं ; विद्या जिनमें है वही हैं विद्वान। लेकिन विद्वान वही हैं जिनका आचरण बन गया है। इसलिए मैंने कहा था -धर्म है 'आचरणात् धर्म।' अनपढ़ आदमी भी धार्मिक बन सकते हैं, महापुरुष बन सकते हैं। और महामहोपाध्याय पंडित भी अधार्मिक हो सकते हैं। तुम लोगों को मैं बार-बार कहता हूं कि अपना आचरण बना लो। आचरण सब कोई बना सकता है। आदर्श का प्रचार करना जैसे साधक का काम है, वैसे हीं स्वयं को पवित्र बनना भी साधक का काम है। कहा गया था, 'आत्ममोक्षार्थ जगत्हिताय च।' तुम अपने सत् बन गए, उससे काम नहीं चलेगा, समाज को भी सत् बनाना होगा। अपने साफ-सुथरा रहते हो, वह यथेष्ठ नहीं है। महामारी के समय मान लो, तुम्हारा घर साफ-सुथरा है, तुम खूब स्नान करते हो, किंतु बस्ती एकदम गंदी है, उस दशा में महामारी से नहीं बचोगे। क्योंकि, वातावरण तो खराब है। तुम स्वयं धार्मिक बनोगे और तुम्हारे पड़ोस, तुम्हारे परिचित जितने लोग हैं, परिवार के और लोग पापी रह गए तो तुम भी पापाचार से नहीं बचोगे, क्योंकि उनका असर तुम पर पड़ेगा। मान लो, पति धार्मिक है और पत्नी नहीं है, पति घूस लेना नहीं चाहते हैं और पत्नी कहती है घूस लो -तो घर में लड़ाई होगी। ठीक उलटा भी हो सकता है। पत्नी धार्मिक है और पति नहीं है। ऐसे में पति भी दबाव डाल सकता है कि ऐसा करो, वैसा मत करो। उसके सद कार्यों में बाधा भी पहुंचा सकता है। इसलिए तुम धार्मिक हो -यही यथेष्ट नहीं है। अपने वातावरण को भी धार्मिक बनाना पड़ेगा। तुम साफ-सुथरा रहोगे और बस्ती, मुहल्ला को भी साफ-सुथरा रखोगे, तभी तुम भी महामारी से बचोगे। और यह जो धर्म का प्रचार है, इस आचार में दार्शनिक ज्ञान गौण है। मुख्य है अपना आचरण। लोग तुम्हारे पांडित्य से जितना प्रभावित होंगे, तुम्हारे आचरण से उससे अधिक प्रभावित होंगे। कहा भी गया है कि धर्माचरण, धर्म का आचरण। आचरण ठीक होने से तुम्हारी भी तरक्की हो रही है - रूहानी तरक्की हो रही है, आध्यात्मिक उन्नति हो रही है, और जो तुम्हारे संपर्क में आ गए हैं, वे भी तुम्हारे आचरण से प्रभावित होंगे। मान लो, तुम सिद्धांत के रूप में धार्मिक बन गए हो -काफी धार्मिक पुस्तकें पढ़ लिए हो, किंतु आचरण ठीक नहीं है, तो उससे क्या होगा? तुम्हारी तो आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी, मन नहीं बदलेगा और लोग भी प्रभावित नहीं होंगे। लोग कहेंगे -हां, उन्होंने काफी पुस्तकें पढ़ी हैं, पर खुद उनमें तो कुछ नहीं है। तुम्हारा असर दूसरों पर नहीं पड़ेगा, क्योंकि जो अपने को नहीं बनाता है, अपने बनने की कोशिश नहीं की है, वह दूसरों को कैसे बनाएगा? धर्म आचरण की चीज है। तुम लोगों से मैं कहता हूं कि यम-नियम में कट्टर बनो और साधना में नियमित बनो। जब तक दुनिया में हो अपना कर्त्तव्य करो और दूसरों को भी कर्त्तव्य की राह पर ले चलो। यही तुम्हारा काम है। और याद रखो कि तुम्हारे सामने एक विराट व्रत है, एक विराट मिशन है और उसी मिशन को पूरा करने के लिए तुम इस दुनिया में आए हो। तुम तुच्छ जानवर के समान नहीं हो। जय तुम्हारी होगी। प्रस्तुति : आचार्य दिव्यचेतनानंद
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