भारतीय टैक्स चोरों के स्विस खाते आखिर कब खुलेंगे16 Mar 2009, 0945 hrs IST,नवभारत टाइम्स
चंद्रभूषण इमर्जंसी के ठीक बाद भारतीय राजनेताओं के स्विस खातों का हल्ला पहली बार सुनने को मिला
था। 1977 के आम चुनाव में कांग्रेसी और गैरकांग्रेसी -दोनों ही खेमों ने एक-दूसरे के खिलाफ देश से धन लूट कर स्विट्जरलैंड के गुमनाम बैंक खातों में जमा कर देने के आरोप लगाए थे। इसके दस साल बाद बोफोर्स कांड के हल्ले में स्विस खातों के अलावा सेंट किट्स, बेलीज और केमैन आइलैंड जैसे बेनामी खातों के कई अन्य केंद्र भी चर्चा में आए थे। लेकिन दोनों बार यह हल्ला सिर्फ चुनावी अभियानों तक ही सिमट कर रह गया और विदेशों में जमा भारत का पैसा देश में लौटाने का कोई सार्थक प्रयास आज तक नहीं किया जा सका। मंदी के इस माहौल में स्विट्जरलैंड ही नहीं, टैक्स चोरी के सारे अड्डे बुरी तरह दबाव में हैं और उनमें दबा भारत का पैसा निकलवाने का यह बहुत अच्छा मौका है। बीते शुक्रवार को टैक्स हेवन के नाम से मशहूर सिंगापुर, हॉन्गकॉन्ग, ऑस्ट्रिया, लक्जमबर्ग, लीख्टेंस्टाइन, अंडोरा, जर्सी और आइजल ऑफ मैन ने एक साथ घोषणा की कि वे दुनिया में कहीं भी टैक्स चोरी से जुड़े मामलों में अपना पूरा सहयोग देंगे।
स्विट्जरलैंड ने ठीक-ठीक यह तो नहीं कहा लेकिन टैक्स फ्रॉड और टैक्स इवेजन के बीच के जिस महीन कानूनी फर्क का आधार बनाकर वह अपने यहां मौजूद खातों की जांच को धता बताता रहा है, उसे खत्म करने की बात उसने जरूर कही है। फिलहाल तीन वजहें ऐसी हैं, जिन्हें आधार बनाते हुए बेनामी खातों के खुलासे को आम चुनाव का केंद्रीय मुद्दा बनाया जाना चाहिए। इनमें एक तो खुद चुनाव ही है, जिसे ऐसे मुद्दे उठाने के लिए अच्छा मौसम माना जाता रहा है। देश के लगभग सारे राजनीतिक दल पिछले कुछ वर्षों में किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर चुके हैं, लिहाजा बेहतर यही होगा कि इस मुद्दे को उठाने की पहल राजनीतिक दायरे के बाहर से हो। दूसरी वजह की शुरुआत सबसे बड़े स्विस बैंक यूबीएस से हुई है, जिसे अपने यहां मौजूद अमेरिका के लगभग 300 बेनामी खातों का पिछले महीने खुलासा करना पड़ा। स्विट्जरलैंड के सारे राजनेता और बैंकर एकजुट होकर इस सिलसिले को यहीं खत्म कर देना चाहते हैं लेकिन अमेरिका की मांग अपने यहां टैक्स चोरी से जुड़े कुल ढाई लाख खातों के खुलासे की है और कई यूरोपीय देश भी इस मामले में आर या पार की मुदा में हैं। ऐसे में अगर किसी तरह भारत सरकार को भी इसके लिए मजबूर किया जा सके, तो कुछ नतीजा निकलने की उम्मीद की जा सकती है। तीसरी वजह कहीं ज्यादा जटिल और भयानक है और इसका नाता भविष्य से जुड़ा है। भारतीय अर्थव्यवस्था में 2003 से 2008 की शुरुआत तक लगातार नजर आई तेजी के पीछे एक बड़ा कारण विदेशों में बेनामी तौर पर जमा बेशुमार भारतीय पैसों का आड़े-तिरछे तरीकों से देश में वापस आना है। स्विस बैंकों से निकल कर एनआरआई और एफआईआई जुगाड़ों के जरिए भारत लौटी इस पूंजी ने पांच साल तक यहां अपार मुनाफा कमाया, लेकिन पिछले सवा साल से आम निवेशकों का पैसा समेट कर यह बड़ी तेजी से अपने विदेशी घोसलों में वापस जा रही है। भांडा फूट जाने का खौफ अगर इसके भीतर नहीं पैदा किया गया, तो इस गाढ़े वक्त में देश को अपनी ही बहुत बड़ी संपदा का कोई लाभ नहीं मिल सकेगा। भारत का कितना पैसा स्विस बैंकों में जमा है, इस बारे में इंटरनेट पर मौजूद एक आंकड़ा 1500 अरब डॉलर यानी करीब 80 लाख करोड़ रुपये का है, जो इनमें जमा दुनिया भर की रकम का 37.50 प्रतिशत है। इस तथ्य की आधिकारिक पुष्टि नहीं की जा सकती, क्योंकि स्विस बैंक अपने खाताधारकों के बारे में कोई भी सूचना प्रकाशित नहीं करते। लेकिन भारतीय कानूनों में मौजूद झोल को देखते हुए यह राशि अतार्किक नहीं जान पड़ती। किसी स्विस बैंक की गैर-स्विस ब्रांच में धन जमा करने पर खाताधारी को गोपनीयता की कोई सुविधा नहीं मिलती, क्योंकि उस शाखा को संबंधित देश के कानून के मुताबिक चलना होता है। किसी खाताधारी को अगर नंबर्ड अकाउंट की चरम गोपनीयता का लाभ उठाना है तो उसे न सिर्फ अपना खाता खुद स्विट्जरलैंड जाकर खोलना होता है, बल्कि हर बार नई रकम जमा करने के लिए भी उसका निजी तौर पर वहां उपस्थित होना जरूरी है। भारत से औसतन 50 हजार लोग हर साल स्विट्जरलैंड जाते हैं, जिनमें 25 हजार का नाम वहां अक्सर आने-जाने वालों के रूप में दर्ज है। सरकार अगर चाहे तो अपनी जांच की शुरुआत पिछले पांच-छह वर्षों की हवाई यात्राओं के रेकॉर्ड निकाल कर स्विट्जरलैंड के फ्रीक्वेंट फ्लायर्स पर नजरदारी के जरिए कर सकती है। स्विट्जरलैंड में बैंक खातों की गोपनीयता सन 1713 से विधिवत शुरू हो गई थी। फ्रांसीसी अमीर स्विस बैंकरों के पास अपना पैसा रखना सबसे ज्यादा सुरक्षित मानते थे। प्रथम विश्वयुद्ध में यूरोप की सारी मुद्राएं ढह जाने के बाद अपनी तटस्थता की वजह से स्विट्जरलैंड दुनिया के बैंकिंग सेंटर के रूप में उभरा। 1931 में जर्मनी की नाजी सरकार ने जब जर्मनों के लिए विदेशी खाता रखना दंडनीय अपराध बना दिया और 1932 में फ्रांस की वामपंथी सरकार ने भी स्विस बैंकरों पर सभी फ्रांसीसी खातों का खुलासा करने का दबाव डाला तो 1934 में स्विट्जरलैंड ने अपने यहां बाकायदा कानून बना कर किसी भी खाते की गोपनीयता भंग करने को आपराधिक कृत्य का दर्जा दे दिया। तब से लेकर 18 फरवरी 2009 तक किसी स्विस बैंक के खाते में गई रकम के बारे में कोई जानकारी जुटाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। स्विट्जरलैंड में 1934 का 'बैंकिंग गोपनीयता कानून' महामंदी के ठीक बाद के दबावों से निपटने के लिए बना था और स्विस बैंकों के सामने यह कानून तोड़ने की मजबूरी अब आई है, जब दुनिया एक बार फिर कमोबेश वैसी ही मंदी का सामना कर रही है। छंटनी और तालाबंदी का सिलसिला जब लाखों लोगों की रोजी-रोटी छीन रहा हो तो कोई देश अपने भ्रष्ट अमीरों को अरबों-खरबों की रकम कहीं और छुपाने की इजाजत कैसे दे सकता है? अमेरिका जैसा धनी देश अगर इस लूट को रोकने की शुरुआत कर सकता है तो भारत जैसे गरीब देश का तो इसके लिए किसी भी हद तक जाना वाजिब है। इस मुद्दे को अगली सरकार के अजेंडे पर लाने का मौका यही है, बशर्ते चुनावी हवा-पानी में यह उनसे बिसर ही न जाए।
सोर्स: नवभारत टाईम्स
Monday, March 23, 2009
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